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________________ चातुर्याम बिरतियों को यहां चार याम कहा है । याम शब्द संस्कृत भाषा की यम् धातु से बना है अतः उसका अर्थ नियंत्रण या रोक है । उक्त चार प्रकारों से प्रवृत्तियों का निरोध ही चातुर्याम धर्म है । स्थानांगे में यह कथन किया गया है- भरदेरावरसु णं वासेसु पुरिमपच्छिमवज्जा मज्झिमगा बावीसं अरहंता भयवंता चाउज्जामं पन्नविति । अर्थात भरत और ऐरावत क्षेत्रों में प्रथम और अंतिम को छोड़ बीच के बाईस अर्हन्त भगवान् चातुर्याम धर्म का उपदेश देते । आचारांग से हमें ज्ञात होता है। कि भगवान् महावीर ने केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात पंचमहाव्रतों का उपदेश दिया । संबंधित उल्लेख इस प्रकार है- “तओ णं समणे भयवं महावीरे उपण्णणाणदंसणधरे गोयमाइणं समणाणं गिग्गंथागं पंचमहवयाई सभावणाई छज्जीवणिकायाई आइक्खइ भासइ परूवेइ तं जहा ।" समवायांग में यह उल्लेख है कि पुरिम और पच्छिम तीर्थंकरों के ५ यामों की २५ भावनाएं हैं। पूज्यपाद ने भी उल्लेख किया है कि १३ चरित्रों का उपदेश भगवान महावीर ने ही दिया उनके पूर्व किसी ने नहीं । चारित्रयभक्ति में भी पूज्यपाद ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि महावीर के पूर्व पांचव्रतों का उपदेश किसी तीर्थंकर ने नहीं दिया । यह पूरी स्थिति उत्तराध्ययन सूत्र में पूर्णतः स्पष्ट है । वहां केशी के प्रश्न के उत्तर में इन्द्रभूति ने कहा कि - प्रथम तीर्थंकर के समय पुरुष ऋजु-जड़ तथा अंतिम तीर्थंकर के समय वे चक्रजड होते हैं अतः धर्म दो प्रकार का है। तात्पर्य यह कि जो उपदेश मध्य मे बाईस तीर्थंकरों के द्वारा दिया जाता है वही उसी रूप में प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के द्वारा नहीं दिया जा सकता क्योंकि इन दोनों के समय मनुष्य जड होते हैं । केशी का प्रश्न था कि पार्श्व ने चातुर्याम धर्म तथा वर्धमान ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया । जब दोनों का ध्येय एक था तो यह दुविधा क्यों ? इंद्रभूति के ऊत्तर से स्पष्ट है कि प्रथम और अंतिम ने पांच महाव्रतों का और मध्य के बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया । इस स्थिति को समझाने के लिए आगम के टीकाकार यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे हैं कि चारयामों में पांचवां महात्रत समाविष्ट है । अभयदेव ने बहिद्धादाण शब्द की जो व्याख्या की है उससे स्पष्ट है कि परिग्रह में ब्रह्मचर्य का समावेश किया गया है । शान्त्याचार्य ने उत्तराध्ययन के २३ वें सूत्र पर व्याख्या करते हुए इसी स्थिति को इस प्रकार समझाया है' चातुर्याम.... स एव मैथुनविरमणात्मकः पञ्चमव्रतसहितः " । ( अर्थात् चातुर्याम.... वहीं है जो ब्रह्मचर्यानिक पांचवें महाव्रत सहित है) । किन्तु श्रुतांगों में या उपांगों में यह कहीं नहीं कहा गया है कि भगवान् ऋषभ द्वारा उपदेशित पांचत्रतों का चार में संकोचन कर मध्य के बाईस तीर्थंकरों ने चार यामों का उपदेश दिया और फिर चार यामों का पांच में पुनः विस्तार कर भगवान् महावीर ने उन्हीं पांच व्रतों का उपदेश दिया । श्रुतांगो में कई स्थानों पर पार्श्व के अनुयायियों द्वारा महावीर द्वारा उपदेशित पंचमहाव्रत स्वीकार करने का उल्लेख हैं । इन सब स्थानों पर केवल यही निर्देश है कि पार्श्व के अनुयायियों ने चातुर्याम के स्थान में पांचमहात्रतों को ग्रहण किया । कहीं भी यह कथन नहीं किया गया कि उन अनुयाथियों ने पार्श्व के अंतिम याम का दो में विभाजन स्वीकार किया तथा उन पांचों को पांच व्रत रूप से माना । तात्पर्य यह है आगमों में चार यामों और पांच व्रतों को पृथक पृथक ही रखा गया है, एक अंतिम याम में दो व्रत गर्भित हैं यह सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया गया । ऐसी स्थिति में "चाउनाम" का जो स्पष्टीकरण स्थानांग में दिया है उस पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है । 6 इस संबंध में विचार करते समय दृष्टि प्रथमतः मूलाचार की उस गाथा पर जाती है जहां यह निर्देश किया गया कि सामायिक की शिक्षा मध्य के बाईस तीर्थंकरों ने दी। यहां भी उक्त दो शिक्षाओं का कारण प्रायः वही दिया गया है जो चाउज्जाम और पांच महाव्रतों के उपदेश की भिन्नता के कारण को समझाने के लिए इन्द्रभूति ने केशी को दिया था કાળ १. स्था. ३२८. २. आ. २.१५, १०-२४. ३. सम ३२. ४ चा. भ. ७. ५. उ. सू. २३. ६. भ. सु. ७६.२२५, ३७८ तथा सू. कृ. ८१२. ७. मू आ. ७.३६ ८. मू आ. ७. ३९, श्रीजिनदास पार्श्वनाथ फडके द्वारा संपादित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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