SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 504
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पणियाँ [ १६ ४. ३. ९. वादिराजसूरीने भुजंगकी मृत्यु मर्कटोके रूपमें उत्पन्न अनुन्धरीके हाथों बताई है-श्री. पा. ३. १०३. ४. ५. १. विजवेउ-विद्युद्वेग-विद्युत्के लिए इस ग्रन्थमें बहुधा विज शब्दका भी उपयोग हुआ है। इसीसे मराठीके बीज शब्दकी उत्पत्ति हुई है। ४.५. ११ किरणवेग-महापुराणमें पार्श्वनाथके इस भवका नाम रश्मिवेग बताया है। किरण और रश्मि समानार्थी शब्द हैं अतः उनमें कोई मौलिक भेद नहीं है (म. पु. ७३. २७.)। ४.७. १. णरयालय गय-दर्सिय-फलेण-नरकमेव आलयम । नरकालये गतम् (गमनम् ) । नरकालयगतेन दर्शितं फलं यस्य तत् । यह समास रज्जेका विशेषण है। ४.८. ६. पंचसमिइ-पाँच समितियोंके नाम इस प्रकार है पिक्खेवणं च गहणं इरियोभासेसणा य समदीओ। पदिठीवणियं च तहा उच्चारादीणि पंच विहा ॥ मू. श्रा. ५.१०४. ४. ८. ८. श्रावासयच्छ-छह आवश्यकोंके नाम ये हैं। सामाइय चउवीसत्थव वंदणयं पडिक्कमणं । पञ्चक्खाणं च तहा कात्रोसग्गो हवदि छट्ठो । मू. श्रा.७.१५. ४.९. २. पासत्थ-शिथिलाचार साधु पासत्थ (पार्श्वस्थ ) कहलाते थे। पाश्वेस्थ साधुका लक्षण यह है वसेदीसु अपडिबद्धो अहवा उवकरणकारो भणियो। पासत्थो समणाणं पासत्थो सो होई॥ मूलाचारके अनुसार जिन पार्श्वस्थोंकी बन्दना नहीं करना चाहिए वे पाँच प्रकार के हैं पासंत्थो य कुसीलो संसत्तोसरण मिर्गचरित्तो य । दसरा-गाण-चरित्ते अणि उत्ता मंद संवेग ॥ मू. प्रा. ७.६६. खेत्तु छडिज्जइ-मूलाचारमें नृपतिविहीन क्षेत्रके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रोंको भी त्यागनेका उल्लेख किया गया है णिवदि-विहूर्ण खेत्तं शिवदी व जत्थ उद्दओ होज । पव्वजा च ण लब्य संजमघादो य तं वज्जे ॥ मृ. श्रा.१०.६०. ४.१०.६,७. तीनों ऋतुओंमें कायक्लश सहन करनेका उपदेश मूलाचारमें इन शब्दों में दिया है हेमंते छिदिमंता सहति ते हिमरयं परमघोरं । अंगेसु णिवडमाणं गलिणी-वण-विणासियं सीयं ॥ जल्लेण मइलिदंगा गिम उरणादवेण दडूंगा। चेट्टति णिसिटुंगा सूरस्स य अहिमुहा सूरा ।। धारंधयारगुविलं सहति ते वाद-वादलं चंडं। रतिदियं गलंतं सप्पुरिसा रुक्ख-मूलेसु ॥ मू. आ.६.६७,६८,६६ मनुने भी इस प्रकारके कायक्लशोंको सहन करनेका निदेश दिया है ग्रीष्मे पञ्चतपस्तु स्याद्वर्षास्वभावकाशिकः। आर्द्रवासस्तु हेमंते क्रमशो वर्धयंस्तपः ।। म. स्मृ. ६.२३ -मयमत्त । मदोन्मत्त हस्तीकी उपमा यहाँ औचित्यपूर्ण प्रतीत नहीं होती किन्तु मूलाचार (९.१०८, १०९) में मनकी उपमा मदोन्मत्त हस्तीसे दी है तथा यह कथन किया है कि जिस प्रकार अंकुशसे हाथो वशमें किया जाता है उसी प्रकार ज्ञानसे मन वशमें करना चाहिए। ये दो गाथाएँ सम्भवतः कविके सामने रहीं हैं और उनका भाव यहाँ प्रयुक्त करनेकी भावना ही यहाँ इस उपमाका कारण है। पाँचवीं सन्धि ५.१.६से१२ इन पंक्तियोंमें कविने राजा वज्रवीर्यको उपमा क्रमशः शंकर, पवन, इन्द्र, रवि, चन्द्र, सागर, पर्वत, कुबेर, माधव तथा कामदेवसे देनेका विचार किया किन्तु वे सब दोषयुक्त पाए गए क्योंकि रविका अस्त होता है, शशि कलंकी है, सागरका मंथन हुआ था तथा गिरि निरा पत्थर है (अन्य उपमानोंके दोष कविने स्वतः दिये हैं)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy