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________________ २००] पार्श्वनाथचरित अतः ये सब राजाके उपमानके योग्य नहीं । इससे राजाकी श्रेष्ठता व्यक्त होती है। यह व्यतिरेक अलंकार है। उपमानाद्यदनस्य व्यतिरेकः स एव सः। का. प्र. १०. १०५. । इस अलंकारके लिए देखिए णा. च. १.३।। ५. ३. ४. चक्काउहु-उत्तरपुराणके अनुसार छठवें भवमें पार्श्वनाथका नाम वनाभि था तथा वे इसी भवमें चक्रवर्ती हुए थे। (म. पु. ७३. ३२, ३३)। ५.३. ६. कुम्मुरणयचलणु-कृमके समान उन्नत चरण मनुष्यका एक उत्तम और शुभ लक्षण है। कूर्मोनतौ च चरणो मनुजेश्वरस्य । बृ. सं. ६०.२.1 विसाल वयण-यह भी मनुष्यका एक शुभ लक्षण है उरो ललाटं वदनं च पुंसां विस्तीर्णमेतत् त्रितयं प्रशस्तम् । बृ. सं. ६०.८५.. . ५. ६. ११ पुव्व-पुरिस ( पूर्वपुरुष )-इसके दो अर्थ संभव हैं-(१) वृद्ध पुरुष (२) वंशक्रमागत व्यक्ति । दूसरा अर्थ यहाँ अधिक उपयुक्त है । कविने ६.६. १३. में पीढ़ियोंसे राजाकी सेवा करने वाले सेवकोंका उल्लेख भी किया है। –मेल्लिज्जहि-मेल्लका अर्थ त्यागना होता है पर यहाँ वह नियुक्त या स्थापित करने के अर्थ में प्रयुक्त है । हिन्दीमें छोड़ना शब्द पठाने या स्थापित करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है यथा-उसने दूत छोड़े हैं या सेवक रख छोड़े हैं। छंड (जिससे हिन्दोका छोड़ना शब्द बना है) तथा मेल्ल समानार्थी क्रियाएँ हैं। अतः इनके उक्त अर्थों में प्रयुक्त करनेका इतिहास पुराना है।। ५. ८. १. छज्जीव (पड़जीव)-त्रसकायिक, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक ये जीवोंके छह भेद हैं ( त. सू. २. १३, १४.)। ५. ८. २. रिद्धि-ऋद्धियाँ आठ हैं-बुद्धि, क्रिया, विक्रिया तप, बल, औषधि, रस तथा क्षिति (ति.प. ४.९६०)। बुद्धि ऋद्धिके १८ भेद हैं, जिनमें से बीज तथा कोष्ट दो हैं। प्रधानाक्षरादिके ज्ञान होनेपर जिसके द्वारा समस्त श्रुतका पाठ या अर्थका ग्रहण हो सके वह बीज बुद्धि नामक ऋद्धि है (ति. प. ४. ९७५, ९७६, ९७७)। जिसकी सहायतासे कोई व्यक्ति गुरु आदिके उपदेश या ग्रन्थोंमेंसे शब्दरूप बीजको ग्रहण कर उन्हें अपने बुद्धिरूपी कोठेमें धारण करता है तथा आवश्यकतानुसार उनका उपयोग करता है वह कोष्ट-बुद्धि नाम ऋद्धि कहलाती है। (देखिये ति. प. ४.९७८, ९७९) । क्रिया ऋद्धिके दो भेद है-आकाशगामित्व तथा चारणत्व । आकाशगामित्व तथा आकाशगमन एक ही ऋद्धिके दो नाम हैं। जिसके द्वारा कायोत्सर्ग अथवा अन्य प्रकारसे ऊर्ध्व स्थित होकर या बैठकर गमन किया जाए वह आकाशगमन ऋद्धि है। ५. ८. ३. णवभेयहिं परमलद्धि-ये वे लब्धियाँ हैं जो मनुष्यको केवलज्ञानके पश्चात् प्राप्त होती हैं। इनकी प्राप्तिसे जीव परमात्मत्वको प्राप्त होता है। ५. ८.५. भीमाडइवण-इस वनका उल्लेख ति. प. या अन्य ग्रन्थमें प्राप्त नहीं। किन्तु पद्मकीर्तिने इसका उल्लेख १४. १.१२ में भी किया है। जलणगिरि-यह सुकच्छविजयमें स्थित एक पर्वत है। अन्य पार्श्वनाथचरित्रोंमें भी इसका उल्लेख प्राप्त है (देखिये. पाव. च. २.६१)। ५.९.७, ८, ९, १०–नयनों द्वारा पूर्व जन्मकी घटनाओंको स्मरण करनेका उल्लेख अन्यत्र भी हुआ है आयइँ लोयहो लोअणइँ जाइँ सरइ न भंति । अप्पिए दिवइ मउलिअहि पिए दिवइ विहसंति ॥ हे.८.४.३६५ ५. १०.५. सरण-देखिए ३. १५.२ पर दी गई टिप्पणी। ५. ११. ३. मज्झिमगेविजि (मध्यमवेयके )-सोलह स्वर्गोंके ऊपर नौ ग्रैवेयक स्थित हैं जो अधो, मध्य तथा उपरिम इन तीन वर्गों में विभक्त हैं। इनके नामादिके लिए देखिए ति. प. ८.१२२ छठवीं सन्धि ६.१.९. अट्ट सुविण-चक्रवर्तीकी माता द्वारा आठ स्वप्न देखनेका यहाँ उल्लेख है। आदिपुराणमें चक्रवर्तीकी माता द्वारा छह स्वप्न देखे जानेका निर्देश किया गया है अथान्यदा महादेवी सौधे सुप्ता यशस्वती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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