SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८] पार्श्वनाथचरित पावं ति मरणमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥ का. अ.३८६. -दहलक्खण धम्म-उत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच संयम, तप, त्याग, आकिंचन तथा ब्रह्मचर्य ये धर्मके दस अंग हैं। इन्हें ही यहाँ धर्मके दस लक्षण कहा है उत्तम-खम-मद्दवज्जव-सच्च-सउच्चं च संजमं चेव । तव-तागमकिचराहं बह्मा इदि दसविह होदि ॥ बा. अ.७०. ३. १५. २. सरण चयारि-अहत्, सिद्ध, साधु और धर्म ये चार शरण हैं। मू. आ. में मृत्यु समीप आनेपर इन चार शरणों के स्मरण करनेका उपदेश दिया है णाणं सरणं मे दसणं च सरणं च चरिय सरणं च।। तवसंजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो॥ मू. आ.२.६. मंगलपाठमें भी चारों शरणोंका उल्लेख इसप्रकार आता है चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरहंते सरणं पब्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पवजामि, केवलि पराणत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि । अन्यत्र पाँच परमेष्ठियोंके पाँच शरण होनेका उल्लेख है निमित्तं शरणं पंच गुरवो गौणमुख्यता । शरण्यं शरणं स्वस्य स्वयं रत्नत्रयात्मकम् ।। --अझरुद्द-ध्यानके चार प्रकार हैं-आत, रौद्र, धर्म तथा शक्ल । इनमें से प्रथम दो कर्मबंध करते हैं तथा शेष दो मोक्ष प्राप्ति कराते हैंआर्तरौद्रधर्मशुक्लानि । परे भोक्षहेतू । त. सू.६.२८, २६. तथा-असुहं अट्टर उई धम्म सुक्कं च सुहवरं होदि । का. अ.४७०. अतः प्रथम दोका त्याग तथा अंतिम दोका ग्रहण अपेक्षित है। चौथी सन्धि १.१.१. सहसार (सहस्रार)-बारहवें स्वर्गका नाम है। स्वर्गोंके नामादिके लिए देखिए सन्धि १६ कडवक ५। ४. १.९. फासुव (प्रासुक)-प्रगताः असवः यस्मात् तत् । जिसमेंसे जीव जाता रहे वह अचित्त होनेसे दोषरहित होता है। जिस मार्गपर पुरुष, स्त्री या पशु बारम्बार चलें वह प्रासुक हो जाता है सयडं जाणं जुग्गं वा रहो वा एवमादि वा। बहुसो जेण गच्छति सो मग्गो फासुत्रो भवे ॥ हत्थी अस्सो खरोढो वा गोमहिसगवेलया। बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ भवे ।। इत्थी पुंसा व गच्छंति भादवेण च मोहतः। सत्थ परिणदो चेव सो मग्गो फासुओ हवे॥ मू. आ.५-१०७,१०८,१०६ ४. १. ११. परीवा-यह परि+इ धातुका भूतकालिक कृदन्त है। इसमें व श्रतिसे आया है तथा अन्तिम स्वरका दीर्धीकरण छन्दकी अपेक्षासे किया गया है। ४.२. १. बारहभेयहि पेहणाहि-द्वादश अनुप्रेक्षणाओंके नाम इस प्रकार है-अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म तथा बोधिदुर्लभ अधुवमसरणमेगत्तमराण-संसार-लोगमसुचित्तं ।। आसव-संवर-णिज्जर धम्म बोहिं च चिंतेज्जो ॥ बा. अ.२. यहाँ उक्त बारहमेंसे केवल अशरण, संसार तथा धर्म भावनाओंका ही उल्लेख है। ४. २. ३. गाविय धरा-इस पाठमें धरामें सप्तमी विभक्तिका लोप मानना होगा तथा वियको दत्तके अर्थ में लेना होगा। ४. ३. ३. लासउ-लासका सामान्य अर्थ नृत्य है किंतु यहाँ वह वंदनके अर्थमें लिया गया है। सय जण गछाती वा गोम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy