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________________ १ टिप्पणियाँ [१९७ अन्य ग्रन्थों में इन सात व्रतोंको दो भिन्न-भिन्न वर्गों में विभाजित करने तथा उनमें समावेशित व्रतोंके विषयमें - अन्यान्य व्यवस्थाएँ अपनाई गई हैं। त. सू. ७.२० में अणुव्रतोंका उल्लेख करनेके पश्चात् अगले सूत्र में दिग् , देश, अनर्थदण्ड, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिमाण तथा अतिथिसंविभागका उल्लेख किया है पर इन्हें दो वर्गों में विभाजित नहीं किया। त. सूत्र ७.२१ की सर्वार्थसिद्धि टीकामें इन सात व्रतोंमेंसे प्रथम तीनको एक वर्गमें रखकर उस वर्गका नाम गुणव्रत दिया है। पर शेष चारके एक अन्य वर्गका नाम सर्वार्थसिद्धिकारने नहीं दिया है। इन चारका वे एक अन्य वर्ग मानते थे या नहीं यह भी स्पष्ट नहीं है। उक्त सूत्र की राजवार्तिक टीकामें न गुणवतका न हि शिक्षात्रतका नामतः उल्लेख है। कार्तिकेय-अनुप्रेक्षामें गाथा ३४१ से ३५० तक गुणव्रतोंका तथा ३५२ से ३६८ तक शिक्षात्रतोंका वर्णन है। इस ग्रन्थमें दिग , अनर्थदण्ड तथा भोगोपभोगपरिमाणको गुणत्रत तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, पात्रदान तथा देशव्रतको शिक्षाबत नाम दिया है। श्रावक प्रज्ञप्ति (२८० से ३२८) तथा रत्नकरण्डश्रावकाचार (६७ से १२१) में भी उक्त सात व्रतोंको गुणत्रत तथा शिक्षावत नामक दो वर्गों में विभाजित किया है। यह विभाजन कार्तिकेयअनुप्रेक्षाके ही अनुसार किया गया है। किन्तु इन तीनों ग्रन्थोंमें पात्रदान तथा देशव्रतके नामोंमें तथा व्रतोंके क्रममें मतभेद है। पात्रदानको श्रावक प्रज्ञप्तिमें अतिथिसंविभाग तथा रत्नकरण्डश्रावकाचारमें वैयावृत्य, तथा देशव्रतको दोनों में देशावकाशिक नाम दिया है। उक्त निरूपणका मथितार्थ यह है कि१. गुणवतों तथा शिक्षाव्रतोंकी संख्यामें कोई मतभेद नहीं है। २. मतभेद संल्लेखनाको इन व्रतोंमें शामिल करनेके विषयमें है। ३. चारित्रपाहुड, सावयधम्मदोहा, पासणाहचरिउ तथा वसुनन्दिश्रावकाचारमें सल्लेखनाको एक शिक्षात्रत माना है तथा देशावकाशिकको एक स्वतंत्र व्रतके रूप में स्थान नहीं दिया। ४. त. सू., उसकी टीका, कार्तिकेय-अनुप्रेक्षा, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा रत्नकरण्डश्रावकाचारमें संलेखनाको इन व्रतोंमें शामिल नहीं किया तथा देशावकाशिकको एक स्वतन्त्र व्रत माना है। ५. जिन्होंने देशावकाशिकको एक स्वतन्त्र व्रत माना है उन्होंने उसका समावेश शिक्षात्रतोंमें तथा भोगोपभोगपरिमाणका गुणवतोंमें किया है किन्तु सर्वार्थसिद्धिटीकामें देशावकाशिकको गुणवतोंमें स्थान दिया है। ६. वर्गों में व्रतोंका क्रम सर्वत्र एक-सा नहीं है। ७. एक ही व्रतको भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न नाम दिये हैं। ३.११.२. चारि पव-दो चतुर्दशी तथा दो अष्टमी ये माहके चार पर्व हैं। इनमें उपवासका विधान है पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । र. श्रा. ५१०६ उपवास-चारों प्रकारके आहारोंका त्याग उपवास कहलाता है-चतुराहारविसर्जनमुपवासः। आहारके चार भेद खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, तथा पेय हैं। ३. ११.८. सल्लेखना-यह समाधिमरणका दूसरा नाम है। स्वामी समन्तभद्रने इसकी यह व्याख्या दी है.......... उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतिकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामाः ॥र. श्रा. ६.१२२ तप करनेवालोंके लिए सल्लेखना प्रायः अनिवार्य है। इसके बिना जीवनके समस्त तप व्यर्थ होते हैं ( देखिए -त. सू. ७.२२)। मनुने समाधिमरणका आदेश उस अवस्था में दिया है जब मृत्युके लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगें; उसकी विधि उन्होंने इस प्रकार की बतलाई है अपराजितायां वास्थाय व्रजेद्दिशमजिह्मगः । आ निपाताच्छरीरस्य युक्तो वार्यनिलाशनः ॥ म. स्मृ. ६.३१ ३. ११. १० बारहमेयहो धम्मु-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत मिलाकर बारह प्रकारका धर्म हुआ। ३. १३.६.णिग्गंथ (निर्ग्रन्थ )-कार्तिकेय-अनुप्रेक्षामें इसकी यह व्याख्या की है जो पव्वज्जइ गंथं अभंतर बाहिरं च साणंदो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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