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________________ १७, १६] अनुवाद [१०५ कुतीर्थोंका अन्त हुआ वह सातवाँ ( सुपार्श्वका ) तीर्थकाल नौ सौ करोड़ सागर रहा। अचिन्त्यपर प्रकाश डालनेवाला विचित्र आठवाँ (चन्द्रका ) तीर्थकाल नब्बे करोड़ सागर रहा। गुणोंके भण्डार नौवें तीर्थकर (पुष्पदन्त ) का तीर्थकाल निन्यानबे लाख निन्यानबे हजार सागरों सहित नौ करोड़ सागर तक रहा। जगके स्वामी परमेश्वर शीतल जिनेश्वरके तीर्थका काल एक सौ सागर कम एक करोड़ सागर कहा गया है। जगपरमेश्वर जिनेश्वरने दसर्वे ( शीतलके तीर्थकाल ) को छब्बीस हजार छयासठ लाख वर्षसे कम बताया है ॥१६॥ . श्रेयांस आदि आठ तीर्थंकरोंके तीर्थकी अवधि श्रेयांसका तीर्थकाल निरन्तर चौपन सागर, जिसमें समस्त शिष्योंने शिवसुख प्राप्त किया वह बारहवाँ ( वासुपूज्यका ) तीस सागर, जिसमें संयम और व्रत धारण किये गये वह विमल जिनेन्द्रका तीर्थकाल नौ सागर तथा गुणोंको धारण करनेवाले जिनाधिप अनन्तका तीर्थकाल चार सागर कहा गया है। तीर्थङ्कर धर्मका तीर्थकाल जो बहुत गुणकारी था, तीन सागरका बताया गया है किन्तु वह जिनागममें पल्यके तीन पादों (१) से कम कहा गया है। जिनवर शान्तिका तीर्थकाल आधा पल्य तथा कुन्थुका पल्यका एक चौथाई कहा गया है, किन्तु जिनागममें उसे एक हजार करोड़ वर्षोंसे कम बताया गया है । अरका महान् और पवित्र तीर्थकाल एक हजार करोड़ वर्षका था। (उन्होंने) जिनवर शीतलके तीर्थकालको सौ सागरसे कम कहा तथा श्रेयांस आदि आठों जिनोंके तीर्थकालको निश्चित रूपसे बताया ॥१७॥ मल्लि आदि छह तीर्थकरोंके तीर्थकी अवधि जिनवर मल्लिका तीर्थकाल चौवन लाख, मुनिसुव्रतका छह लाख तथा नमिका तीर्थकाल पाँच लाख वर्षका था। इस अवधिमें असंख्य ऋषियों और मुनियोंने सिद्धि प्राप्त की । नेमिका तीर्थकाल तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष, तीर्थङ्कर पार्श्वका पचास वर्षों से युक्त दो सौ वर्ष तथा अन्तिम ( वर्धमानका ) तीर्थकाल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण होगा। इससे तीर्थकालोंकी समाप्ति होगी। जिन हजार वर्षोंका यहाँ उल्लेख किया गया है वे अत्यन्त दुषमाकालके हैं । पहिले जो छब्बीस हजार वर्षोंसे रहित छयासठ लाख ( वर्ष ) कहे गये हैं तीर्थङ्कर मल्लिसे प्रारम्भ कर यहाँ पूरी संख्यामें गणना कर हे नराधिप, मैंने तीर्थङ्करोंके तीर्थकालका प्रमाण तुम्हें बताया। अब चक्रवर्तियोंके नाम, जिस प्रकारसे वे जिनागममें कहे गये हैं, उन्हें उस प्रकारसे सुनो ॥१८॥ बारह चक्रवर्ती; उनके नामादि पहिला चक्रवर्ती भरत था। दूसरा पृथिवी परमेश्वर सगर था। अखण्ड राज्यका स्वामी मघवा तीसरा था। इसने पुरोंसे मण्डित भरतक्षेत्रको अपने वशमें किया। चौथा सनत्कुमार नराधिप हुआ। इसने अपने रूपसे सुराधिपको जीता। फिर शान्ति, कुन्थु तथा अर ये तीनों जिनेश्वर चक्रवर्ती और पृथिवीके परमेश्वर भी हुए। आठवाँ चक्रवर्ती जिसका नाम सुभौम था, धुरंधर तथा रणभूमिमें दुर्धर था। नौवाँ चक्रवर्ती पद्म नामका था तथा पृथिवीका पालक हरिषेण दसवाँ था । स्व-निधियों और चौदह रत्नोंका स्वामी तथा शिवपुरीको प्राप्त होनेवाला प्रभु जयसेन (ग्यारहवाँ ) था। छह खण्डोंका प्रधान, पृथिवीका स्वामी और चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त बारहवाँ था। छह खण्डोंसे युक्त पृथिवीपर मान-प्राप्त, कलाओं, गुणों, यौवन और रूपके भण्डार ये बारह नराधिप इस लोकमें हुए। उन्होंने समस्त पृथिवीका पालन किया ॥१६॥ १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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