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________________ १०] पार्श्वनाथ चरित [ १५, ४शोभा प्राप्त धवल-देह शंख स्वयं बज उठे । ज्योतिष्कों में दंष्ट्राओं से विकराल और विशाल सिंह गर्जने लगे । कल्पवासी देवोंके गृहोंमें मधुर ध्वनि वाले, मनोहर तथा श्रेष्ठ घण्टे बज उठे । व्यन्तर देवों के गृहों में सैकड़ों, हजारों, लाखों तथा असंख्य पटु और पटह स्वयं बजने लगे । धरणेन्द्र, चन्द्र, गरुड़, नागेन्द्र, सूर्येन्द्र तथा विद्याधरेन्द्रोंके समूह धग धगाते सिंहासनों को छोड़ तुरन्त ही महीतलपर सात पद चले । मणियोंके समूहसे प्रदीप्त सकल देवों और असुरोंने एक भावसे जिनभगवान् के पैरोंमें प्रणाम किया। फिर वे सब अत्यन्त विशाल विमानोंमें आरूढ़ होकर मन और पवनकी (गति) से चले ॥३॥ ४ इन्द्र तथा अन्य देवोंका पार्श्वके समीप पहुँचनेके लिए प्रस्थान इन्द्र अपने वाहन ऐरावतपर सवार हुआ। देवोंके समूहमें कल-कल ध्वनि हुई । कोई देव विमानोंपर आरूढ़ थे । कोई महान् यशस्वी शिबिका (पालकी) नामक वाहनपर, कोई हरिणोंपर, अश्वोंपर या सिंहोंपर तथा कुछ देव गजेन्द्रों पर आरूढ़ थे । कोई कपोतोंपर, कोकिलोंपर, हंसोंपर, बकोंपर, चीतोंपर, क्रौञ्चोंपर गधोंपर, या भैंसोंपर कोई देव भ्रमरोंपर, सूकरोंपर, पक्षियोंरीछोंपर, बिल्लियोंपर, बन्दरोंपर या परिन्दोंपर कोई सारसोंपर, नकुलोंपर, गरुड़ों पर, सर्पोपर, शुक्रोंपर, मकरोंपर, वराहों पर, खगपतियोंपर या मयूरोंपर तथा कोई यशके धनी वृषभों या गर्दभोंकी जोड़ीपर सवार थे। वे सब देव शोभायमान हुए। वे समस् आभूषणोंसे विभूषित तथा मनोहारि देवगण भक्तिके हेतु जिनेन्द्र के पास चले । पर, ऊँचे, विविध प्रकार से विचित्र, विकसित, किरणोंसे युक्त, नयनोंको आनन्द देनेवाले, सुखकारी तथा आकर्षक देवविमानोंसे नभ, पर्वत, सागर, भूतल तथा नगरसमूह प्रकाशित हुए ||४|| भीमावीको जलमग्न देखकर इन्द्रका रोष बजते हुए मनोहर तूर्यो तथा गगनमें नृत्य करते हुए देवों और असुरोंके साथ अमराधिप तथा लोकपाल स्वच्छन्दतासे नभस्थित नक्षत्रमालाको देखते हुए हर्षपूर्वक तथा क्रम-क्रमसे वहाँ आये जहाँ तीर्थंकर जिनेन्द्र विराजमान थे । इसी समय इन्द्रने रौद्र जल देखा मानों वनमें भीषण समुद्र हो । उसे देखकर सुरेन्द्र मनमें विस्मित हुआ - यह कैसा आश्चर्य जो जिनेन्द्र जल में हैं | यशस्वी सुराधिपने इसपर विचार किया और उसे ज्ञात हो गया कि उपसर्ग ( किया गया है ) | ( तब उसने सोचा-) उस पापी कमठके सिरपर मैं अभी गर्जता हुआ वज्र पटकता हूँ । इन्द्रवज्ररूपी महायुधको गगनमें घुमाकर तथा पृथिवीपर पटककर छोड़ा। उस असुरदेवका साहस छूट गया; वह दशों दिशाओं में भागा तथा पूरे संसार में भ्रमण करता फिरा || ५ || ६ इन्द्र द्वारा छोड़े गये वज्र से पीड़ित हो असुरका पार्श्वनाथके पास शरण के लिए आगमन उस प्रचण्ड वज्रदण्डको सम्मुख आते देख वह कमठामुर भयातुर हो तथा क्लेशकी परवाह न करते हुए मन और पवनके वेगसे नभमें भागने लगा । जाकर वह समुद्रमें घुस गया किन्तु जहाँ कहीं ( भी ) वह दिखाई दिया वहीं पर वज्र जा पहुँचा । वह (असुर) गगनतलको लाँघकर पृथ्वीके उस पार गया तो भी उस दुर्निवार वज्रने उसका पीछा नहीं छोड़ा । वह महासुर एक ही क्षण में पाताल में पहुँचा पर प्रज्ज्वलित ( वज्र ) भ्रमणकर वहीं जा पहुँचा । जल और थलमें चक्कर लगाकर किन्तु त्राण न पाकर वह जिनेन्द्र की शरण में आया और प्रणाम किया। उसी क्षण वह महासुर भयसे मुक्त हुआ तथा वह वज्र भी कृतार्थ हो नभमें चला गया । तब देव कुमारों के साथ सुरेन्द्र वहाँ आया जहाँ जिनेन्द्र विराजमान थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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