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१५, ६] अनुवाद
[६१ कामका नाश करनेवाले भट्टारक तीर्थकरको देखकर सुरेन्द्रका सन्तोष बढ़ गया। उसने हर्षपूर्वक शीघ्रतासे तीन प्रदक्षिणाएँ दी और जिनेन्द्र के चरणोंकी वन्दना की ॥६॥
इन्द्रद्वारा समवशरणकी रचना इन्द्रने जगके स्वामीके समवशरणकी रचना की जो समस्त भविकजनोंका शरण स्थान था । उसमें तीन प्राकार, चार गोपुर, चार नन्दनवन, चार वापियाँ, चार सरोवर तथा मानस्तंभ और पाँच प्रकारके उत्कृष्ट रत्नस्तंभ रचे गये । देवोंने एक मंडप, नृत्य शालाएँ तथा उत्तम और विशाल आठ ध्वजाएँ खड़ी की। उसमें बारह स्थान (= कोठे ) तथा द्वार-द्वारपर आठ-आठ मंगल (चिह ) बनाये गए। उसमें कउसीस (= शिखर ), तोरण, कल्पवृक्ष, सुन्दर और असंख्य सोपान-पंक्तियाँ तथा कञ्चनसे निर्मित तथा गोशीर्ष चन्दनसे चर्चित प्रतिमाएँ एवं नानाप्रकारके स्वस्तिक और चतुक थे। उसमें किंकिणि और घण्टे लटकाये गये।
समस्त सुरों और असुरोंके स्वामी गुणोंसे समन्वित तथा भुवनको प्रकाशित करनेवाले पार्श्वका लोक और अलोकमें प्रकाश फैलानेवाले तथा भविकजनोंको आनन्द पहुँचानेवाले समवशरणका निर्माण किया गया ॥७॥
समवशरणमें जिनेन्द्रके आसनका वर्णन ( उसमें ) पादपीठ सहित मणि और रत्नोंसे जटित तथा सिंहोंकी जोड़ीसे युक्त एक सिंहासनका निर्माण किया गया । श्वेत, उज्ज्वल, प्रशस्त तथा सर्वज्ञताके चिहको प्रकट करनेमें समर्थ तीन छत्र बनाये गये। सुरों द्वारा निर्मित ध्वजपट गगनमें शोभा देता था मानो भविकजनोंका आह्वान करता हो। आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होती थी मानो भविकजनोंके लिए अमृत बरस रहा हो। उसी समय चौसठ यक्ष जो चँवर धारण किये थे तथा कुवलय दलकी-सी आँखोंवाले थे, वहाँ आकर उपस्थित हुए। पल्लवयुक्त अशोक शोभायमान था मानो वैडूर्य और प्रवालोंसे आच्छादित हो शोभा देता हो। सहस्रों सूर्योंके समान (प्रज्वलित) देहवाला भामण्डल भुवनों रूपी गृहोंको प्रकाशित करता हुआ शोभित था । ( उसमें ) लहराती हुई जिनवाणी समस्त त्रिभुवनको अभय देती हुई शोभा पा रही थी। जगत्पतिके आठों ही ( गणधर ) पूज्य थे तथा वे धर्मपुञ्जके समान स्थित हो शोभा दे रहे थे । प्रज्वलित, तेजयुक्त एवं उत्कृष्ट धर्मचक्र निरहंकार रूपसे मणिनिर्मित पीठपर वर्तमान था ।
___पार्श्वनाथ चौंतीस अतिशयोंसे युक्त हैं, गुणोंसे समन्वित हैं, मोक्षरूपी महान् मार्गपर गमन करनेवाले हैं, पापोंका क्षय करनेवाले हैं, जगके स्वामी हैं, जिन हैं तथा तेईसवें तीर्थङ्कर हैं ॥८॥
देवों द्वारा जिनेन्द्रकी स्तुति इसी अवसरपर सकल देवों और असुरोंने तथा अनागार साधुओं, ऋषियों और मुनियोंने स्थिरतासे दोनों हाथ जोड़े, सिरसे नमस्कार किया और जयकार की-"भुवनके स्वामी! तुम्हारी जय हो। कामदेवरूपी उत्कृष्ट गजके तुम्हारी जय हो। हे देवोंके देव ! तुम इन्द्र द्वारा वन्दित हो । तुमने भवरूपी वृक्षकी समस्त जड़ोंको उखाड़ फेंका है। तुम्हारी जय हो। तुम्हारी देह केवल ज्ञानकी किरणोंसे जगमगा रही है । तुमने संसाररूपी व्याधि तथा मोहका परिहार किया है। तुम्हारी जय हो। तुम्हें संसार नमस्कार करता है। तुम सुजन हो । शीलवन्त हो। पाँच चारित्र ( आचार ) धारण करना तुम्हारा शुद्ध स्वभाव है। तुम्हारी जय हो । तुम ज्ञान, ध्यान और विज्ञानसे युक्त हो । सर्वज्ञ हो । निरन्तर शान्त और दान्त हो । तुम्हारी जय हो। तुम निर्मल केवलज्ञानसे महान् हो । परमात्मा हो । अव्यय हो । अनन्त सुख दाता हो । तुम्हारी जय हो।"
"तुम मदनका नाश करनेवाले हो। कल्याणकारी सुखके मार्गदर्शक हो। आदि हो। पुरातन हो। तुम्हारी जय हो। हे जिनेश्वर, तुम केवलज्ञानरूपी सूर्यसे युक्त हो। हे परमेश्वर ! तुम जीवोंपर दयाभाव रखते हो। तुम हमें ज्ञान दो" ॥९॥
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