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________________ पन्द्रहवीं सन्धि गुणोंसे संपूर्ण केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर सुरेन्द्रका आसन कम्पायमान हुआ । चन्द्र, सूर्य, नागेश्वर तथा पृथिवीके स्वामी पार्श्व-जिनेन्द्र के समीप आये । १ केवलज्ञानकी प्रशंसा जो धवल, उज्ज्वल, निर्मल और गुणोंका प्रकाशक है, जिसका निर्वाणपुरी में सदा निवास रहता है, जो लोक और अलोकको प्रकट करनेमें समर्थ है, जो समस्त पारमार्थिक तत्त्वोंका जानकार है, जो अविचल है और गुणोंसे महान् है वह केवल - गुण पाँचवाँ ज्ञान है तथा निर्वाणका मार्ग है । जो इन्द्रियोंके समूहका दमन कर चुका है, गुणोंका धारक तथा परमसुख है, जिसने चारों गतियोंके कर्मरूपी वृक्षको समूल उखाड़ फेंका है, जो संसाररूपी व्याधि तथा जन्मके भयका नाश करनेवाला है, जिसका सुख शाश्वत, प्रकट और अनन्त है, जो सम्यक्त्व, शील और चारित्र्यका पुंज है, जो देवेन्द्र, चंद्र और धरणेन्द्र-द्वारा पूजित है, जो अक्षय, अलक्ष्य, अनेक गुणोंसे युक्त तथा अनन्त है, जो आनन्दका उत्पादन करता है, जो भविकजनोंके लिए महान् है, जिसने समस्त विशाल आगमोंको प्रकट किया है तथा जिसने सन्देह जालको पूर्णरूपसे नष्ट किया है जो भुवनोंमें महान् है, समस्त गुणोंसे परिपूर्ण है, शाश्वत और कल्याणकारी सुखकी सीख देनेवाला है तथा पापका नाश करनेवाला है वह केवलज्ञान पार्श्व जिनेन्द्रको उत्पन्न हुआ ॥ १ ॥ २ असुर के मन में भयका संचार ' इसी समय कमठासुरके मनमें भयके साथ-ही-साथ एक महान् चिन्ता उत्पन्न हुई। जो अपने करके अग्रभागमें सम्पूर्ण आकाशको धारण करता है, जो भुजाओंसे पातालमें शेष ( नाग ) को जीतता है, जो प्रतापसे पूरे जगपर विजय पाता है, जो देवों और असुरोंके वंशका नाश करता है, जो मुष्टिके प्रहारसे मेरुको चूर-चूर करता है, वैभवके कारण जिसकी तुलना संसारमें कुबेरसे होती है, जो भीषण समुद्रको करोंसे पार करता है, जो महासंग्राम में रौद्र यमपर विजय पाता है, जो स्वच्छन्द देहधारी पवनको भी वश में करता है, जो इस लोकमें भुवनरूपी गृहको लाँघ जाता है, जिसके समक्ष जगमें आज भी कोई समर्थ नहीं है तथा अन्य ( व्यक्ति ) जलमें डाली गई हविके समान सारहीन हैं उसके लिए मैंने मरणका मार्ग तैयार नहीं किया; मैंने तो केवल परमार्थका ही यहाँ बोध कराया । ये जिनवर भट्टारक जय (लक्ष्मी) के स्वामी हैं, कल्याणकारी सुखको प्राप्त करनेवाले हैं तथा पुण्यवान् और पवित्र हैं । गुणोंसे सम्पूर्ण तथा समस्त देवों और असुरोंमें श्रेष्ठ वे भारतवर्षमें उत्पन्न हुए हैं ॥२॥ ३ केवलज्ञानकी उत्पत्तिकी देवोंको सूचना इसी अवसर पर पंचेन्द्रियोंके सुखोंमें निरन्तर लीन तथा अपने-अपने गृहों में स्थिर मनसे निवास करनेवाले सुरेश्वरों के सिंहासन कम्पायमान हुए । अनेक सुखोंवाले स्वर्ग तथा असाध्य पातालमें दस प्रकार के भवनवासियोंके बीच अपने-अपने स्थानों में १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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