SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०] पार्श्वनाथचरित [१२, ११ पार्श्वपर यवनराजका शक्ति-प्रहार तब उस नराधिप ( यवन ) ने प्रलयकालीन अग्निके समान समुद्रका शोषण करनेवाली अमोघ शक्तिको छोड़ा जो जगमें वनके समान भयानक थी। ___ नरेन्द्रने कुमारके ऊपर शक्ति छोड़ी । वह नभमें दहकती हुई जैसे कहीं जगको निगलती हुई एवं चिनगारियाँ छोड़ती हई तथा तेज धारण किये हुए यमके समान स्थित थी। वह अत्यन्त वेगसे छोड़ी हुई (शक्ति) क्षणार्धमें ही चल पड़ी। शूलधारिणी वह रणमें भयानक रोगके समान पहुँची। कुमारने उसे अनिष्ट विधिके समान देखा । शत्रपर रुष्ट और सर्वदा यमकी इष्ट (शक्ति) को ( कुमारने ) बाण और मुंसंदीसे छिन्न-भिन्न कर दिया। वह खण्ड-खण्ड की गई (शक्ति) पुनः जीव-पिण्डसे युक्त हो प्रहार करनेवालेके उरमें आकर लगी। तत्पश्चात् शान्त-चित्त तथा महान् कान्ति-युक्त वह लक्ष्मीरूप शक्ति अनिष्टकारिताको छोड़कर स्थिर हुई। शुभ्र, प्रशस्त, सुन्दर, पीनस्तनी, कृशतनु, सती, उत्कृष्ट करोंसे युक्त तथा चन्द्रकी कान्तिके समान जिसकी उज्ज्वल किरणें थीं वह (शक्ति) अनेक गुणोंमें पारंगत कुमारके वक्षस्थलमें समा गई ॥११॥ यवनराज द्वारा शत्र सेनाका संहार दर्पोद्भट तथा पृथिवीमें प्रधान यवनराज हाथमें तलवार लेकर और सिंहके समान दहाड़कर दौड़ा । ( यवन राज) रथोंको चूर-चूर करता था, अश्वोंको मार गिराता था, जयकी आशा करता था, ध्वजाओंको काट गिराता था, हाथोंको रगड़ता था, रणमें घूमता था, नभमें विचरण करता था, सेनाको छकाता था. योद्धाओंको मसल डालता था, रथपर चढ़ता था और सिर काटता था। वह कुलसे उच्च था, प्रबल वक्ता था, यमके समान था, बाणोंकी वर्षा करता था, उपहास करता था तथा त्रस्त नहीं होता था । वह कभी, अश्वोंसे, कभी गजोंसे, कभी रथोंसे और कभी पैदलोंसे, मन और पवनकी गतिसे अत्यधिक संचार करता हुआ एक क्षण लड़ता था और दूसरे क्षण जूझता था । वह एक क्षण कुठारसे और दूसरे क्षण घनसे भयका संचार करता था (पर) बाणोंको सहता था । ( उस समय ) पर्वत हिल उठे, पृथिवी काँप उठी तथा भयभीत शत्रु कातर हो थरथराने लगे और पृथिवीपर जा गिरे। रणमें जूझते हुए तथा तेजस्वी मुखवाले यवनके पैरोंको समय (विराम ) भी नहीं मिलता था। वह ( यवन) प्राणियोंके लिए डरावने अनेक भावोंके द्वारा युद्धरूपी रंगमंचपर नटके समान नृत्यका प्रदर्शन करने लगा ॥१२॥ यवनराजका खड्गसे पार्श्वपर आक्रमण दुस्सह एवं क्रोधाग्निसे प्रज्वलित यवनराजने अभिमानके कारण रणभूमिमें शीघ्र ही फिर आक्रमण किया। दर्पोद्भट और शत्रसेनाके योद्धाओंका नाश करने में समर्थ उस सुभटने वक्षस्थलपर अभेद्य वारण ( = लोहेका तवा आदि ) बाँधे हुए महायुद्धमें यमराजके समान आक्रमण किया । हयसेनका पुत्र उसकी देहमें अमोघ और अग्नितुल्य बाण मारता था। जब बाणसे बाण जाकर टकराता तो नभमें प्रतिघाति बाण एक भी नहीं (रहता)। (पार्श्वने) बाणसे उसके खड्गको जर्जरित कर दिया और विशाल वारणको प्रहार कर फोड़ दिया। उसके बज्रके समान कवचको छिन्न-भिन्न कर दिया तथा उसके वक्षस्थलको सैकड़ों बाणोंसे बेध डाला। फिर भी उस धीरका चित्त किसी भी प्रकारसे चलायमान नहीं हुआ। वह रणमें मन और पवनकी गतिसे संचार करता रहा । चमचमाता हुआ दूसरा खड्ग हाथमें लेकर वह शत्रुके योद्धाओं और सेनाओंका संहार करने लगा। जहाँजहाँ यवनराज पैर रखता था कुमार उस-उस स्थानपर सौ-सौ बाण छोड़ता था । बाणों तथा शत्रुके समस्त योद्धाओंकी परवाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy