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________________ १२, १० ] अनुवाद [ ६६ तब आवेश से भरा हुआ, धनुष बाण हाथमें लिये हुए, युद्ध में समर्थ, शस्त्रोंसे भयानक, शत्रुओंका सागर, कुल और जातिसे शुद्ध, जयलक्ष्मीका लोभी, विपक्षी सेना पर क्रुद्ध तथा सिंहके समान विरोधी यवनराज तत्काल हँसकर गज को छोड़कर शीघ्रता से रथपर सवार हुआ और जयश्रीसे युक्त श्री पार्श्वनाथ देवसे युद्ध करने लगा । दोनों ही सुभट भयावह, भीषण और शत्रु सेनाका संहार करनेवाले थे। दोनों ही कुशल धनुर्धर थे । ( उस समय प्रतीत हुआ) मान बहुत | समय के पश्चात् आकर्षक पर दुस्सह सह्य और विंध्य पर्वत टकराये हों ॥ ॥ पार्श्व और यवनराजका दिव्यास्त्रोंसे युद्ध धनुषपर टंकार देकर और बाण चढ़ाकर यवनराजने वाणों को छोड़ा । पार्श्वकुमारने उन सब बाणों को भी आकाश में ही तेजी से काट गिराया । रण में सुदुस्सह बाण उल्काके समान गिरते थे । विरोधी पक्षके द्वारा छोड़े गये तथा विचित्र चित्रों से मण्डित (बाण) जैसे ही कुमारकी ओर आये वैसे ही उन्हें एक क्षणमें खण्ड-खण्ड कर दिया गया। फिरसे कुछ (बाण) आये वे भी, बाणों से काट डाले गये । रणमें ( यवनके द्वारा ) सर्प (अस्त्र ) भेजा गया वह गारुडास्त्रसे डरवाया गया । फिर गजेन्द्र ( अस्त्र ) छोड़ा गया । उसके लिए सिंह लाया गया। उसके बाद अग्नि (बाण) प्रयुक्त हुआ। वह वरुण ( अस्त्र ) से जीत लिया गया । तत्पश्चात् [ तमोघ बाण छोड़ा गया । वह सूर्य ( अस्त्र ) से प्रतिहत हुआ। इसके बाद नागेन्द्र-शस्त्र चलाया गया । वह वज्रसे नष्ट किया गया । शत्रु पक्षका प्रधान जो समस्त पृथिवी में मुख्य ( वीर ) था जिस-जिस अस्त्रको चलाता था अत्रोंके ( रहस्य )का जानकार तथा लक्ष्मी द्वारा सम्मानित ( वह ) कुमार उस उसको परास्त करता था । युद्ध करता हुआ अभिमानी यवनाधिप शस्त्रोंसे रहित कर दिया गया, महान् और बोरोंसे समर्थ ( पुरुष ) का क्या कर सकता है ? ||९|| अथवा रणमें अवनत व्यक्ति ) संसार में १० पार्श्व और यवनराजका बाण - युद्ध प्रचण्ड यवनराजने विशाल, भयावह और चमकता हुआ त्रिशूल रणमें छोड़ा । वज्र प्रहारोंसे दण्ड देनेवाले ( पार्श्व ) ने उस रौद्र (त्रिशूल ) को पृथिवीपर गिराया । गजासुरके समान उसने बीस तीस वीरोचित भृकुटीसे युक्त और तेजस्वी तथा रणमें छोड़े । वे बाण नागों के समान संसारका नाश करनेवाले थे। दुर्निरीक्ष्य यवनराजने तूणीरसे बाण निकालकर पचास और साठ बाण छोड़े । वे भीषण और " ( शत्रु) सेनारूपी जलका शोषण करनेवाले थे । तब सौ हजार और दस हजार ( बाण ) छोड़े गये । शत्रुके करोंसे चलाये गये बाण ( पार्श्वकी ओर ) आये । पार्श्वनाथने उन सब दुस्सह बाणोंको किस प्रकार नष्ट किया ? उसी प्रकारसे, जैसे, सिंह कुंजर का नाश करता है । फिर वह अपने बाणोंको छोड़ने लगा । वे सहस्रोंकी संख्या में थे, दारुण थे, तीक्ष्ण थे और गजोंको पीडा देनेवाले थे । वे लाखों, करोड़ों और असंख्य दुस्सह बाण शत्रु- समूहको ग्रहोंकी तरह लगते थे। वे प्रलयकालीन सूर्यके समान अत्यन्त तेजस्वी थे और उनकी आभा विद्युत्-पुंज तथा अग्निके समान थी। उन्होंने एक ही क्षण में यवनराजका सिर भेद डाला तथा छत्र और चिह्नको आकाशमें उड़ा दिया । वह ( यवन ) मूच्छित हुआ फिर चेतना प्राप्त की और गर्जता हुआ तथा पीड़ा सहन करता हुआ उठ खड़ा हुआ । तब ( पार्श्वने ) उसके खुदाबके कामसे अत्यन्त मण्डित रथको खण्ड-खण्ड कर दिया । जब वह दूसरे रथपर बैठने लगा तब उसके धनुषकी डोरीको ( भी ) काट दिया । धनुष और रथ छिन्न-भिन्न होने तथा बाणोंसे विंधनेसे ( वह ) यवन- नृप लज्जित हुआ, अथवा जो रणमें गर्जना करता है वह मनुष्य हलका तथा मनुष्यों में तुच्छ होता है ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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