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________________ २८ प्रस्तावना प्राप्ति संभव नहीं । पुनर्जन्म के वे कारण होते हैं यह बात स्पष्टरूप से नहीं कही गई। संभव है इस जन्म के कर्म में और अगले जन्म की प्राप्ति में कारण- कार्य के संबन्ध की कल्पना उनमें जागृत चुकी | श्रीमद्भागवत में तीर्थंकर नेमिनाथ का भी स्वल्प वर्णन है । पर इनके उपदेश की विशिष्टता का उससे परिचय प्राप्त नहीं होता । बौद्धग्रन्थों में पार्श्वनाथ के 'चाउनाम धम्म' का उल्लेख और उसकी संक्षिप्त चर्चा है, पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती तीर्थंकरों का कोई उल्लेख नहीं । 'चाउज्जामधम्म' के उल्लेखों और संक्षिप्त परिचय से केवल इतना ही ज्ञात हो पाता है कि पार्श्वनाथ के मत से यदि पुनर्जन्म में विश्वास है तो उसे सुधारने के लिए हम इस जीवन में संयत रहकर कर्मका आस्रव न होने दें। संभवतः पार्श्वनाथ का यह मत ही इस कर्म सिद्धान्त का बीज हो जिसे भगवान् महावीरने अंकुरित कर एक उन्नत और विशाल वृक्ष के रूप में परिणत किया । संक्षेप में यह कर्मसिद्धान्त इस प्रकार है- मिध्यात्व कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा मन, वचन और काय से जो किया जाता है वह कर्म कहलाता है । इस क्रिया के द्वारा आकृष्ट होकर अजीव तत्त्व ( पुद्गलपरमाणु) जीव के साथ अनुलिप्त हो जाता है । इस अनुलेप से ऐसी शक्तियां उत्पन्न होती हैं जो जीव को नाना योनियों में ले जाती है और नाना अनुभूतियां कराती हैं । ये अनुभूतियां शुभ कर्म के साथ शुभ और अशुभ कर्म के साथ अशुभ होती हैं । जीव का नाना योनियों में जाना ही उसका पुनः पुनः जन्म ग्रहण करना है। इन जन्मों में जीव पुनः पुनः कर्म संचय करता है और फलस्वरूप पुनः पुनः जन्म ग्रहण करता है । इस प्रकार पुनर्जन्म का यह चक्र चलता रहता है। चूंकि जीव अनादि है अतः जन्म-जन्मान्तर का यह चक्र भी अनादि है; किन्तु चूंकि जीव अनश्वर है अतः यह चक्र भी अनश्वर हो सो बात नहीं है । स्वतः जीव के द्वारा मन, वचन और काय की क्रिया के निरोध से इस चक्रका अंत किया जाना संभव है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र द्वारा जीव संचित कर्म को जर्जरित करने में समर्थ हो सकता है तथा स्वतः को क्रमशः शुद्ध अवस्था में पहुँचाकर पुनर्जन्म से छुटकारा पा सकता है । यही छुटकारा मोक्ष है, यही निर्वाण है और यही सिद्धपद है । इसी कर्मसिद्धान्त को सरलरूप से उदाहृत करने की दृष्टि से प्राचीन भारतीय साहित्य में पुनर्जन्म की कथाओं की रचना प्रारंभ की गई । इन कथाओं में एक प्राणी का जीव किसी कर्म के फल को जन्म-जन्मान्तरों में भोगता हुआ बताया जाता है । यदि कर्म शुभ हुआ तो उस कर्ता जीव को उसका सुखदायी फल और यदि कर्म अशुभ हुआ तो उसके दुखदायी फल भोगने के लिए पुनः जन्म ग्रहण करना पडता है । यदि कर्म दो प्राणियों से संबंधित हुआ तो आगामी जन्म में दोनो के ही जीव उस कर्म का फल भोगते हुए बताए जाते हैं । कुछ कथाएं ऐसी भी रची गई जिनमें दो व्यक्तियों के वैरानुबन्ध का परिणाम अगले कई जन्मों में अपना फल देता हुआ बताया गया है । वसुदेव हिंडी' में वैरबन्ध की अनेक कथाएं हैं। इस ग्रन्थ में शांतिनाथ तीर्थंकर के नौ भवों का सुसंबद्ध वर्णन मिलता है । ऐसी एक कथा समराइच्च कहा है जिसमें गुणसेन और अग्निशर्मा के जीव निरंतर नौ जन्मों तक द्वेषभाव रखते हैं । बुद्धघोष द्वारा धम्मपद की टीका में एक ऐसी कथा उधृत की गई है जिसमें वैर की परंपरा ५०० जन्मों तक निरंतर बनी रहती है । ईसा की छठवीं शताब्दि में इस प्रकार की जन्म-जन्मांतर की कथाओं में रुचि इतनी बढ़ी कि बाणभट्ट जैसे कवि ने अपने गद्य काव्य कादम्बरी में चन्द्रापीड, महाश्वेता आदि के तीन जन्मों का विवरण उत्कृष्ट काव्य शैली में दिया । इस काव्य में भी उसके पात्र अपने पूर्व कर्मों का फल भोगते हुए चित्रित किये गए हैं । इस कर्म सिद्धान्त का एक यह परिणाम हुआ कि मनुष्य अपने उन सुख दुखों का कारण जिनका तारतम्य दृश्यमान कार्यों से युक्ति संगत नहीं था, अपने पूर्व जन्मों के कर्मों में देखने लगा । जो मनुष्य इस जन्म में सुखी और प्रतिभा सम्पन्न १. इस ग्रन्थ की रचना का समय पांचवीं सदी के लगभग का माना जाता है । दे. प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ. ३८१, लेखक डा. जगदीशचन्द्र जैन. २. पू. ३१० से ३४३ इ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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