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________________ २९ पार्श्वनाथ के पूर्वभव हुए वे पूर्वजन्म में सुकृत करते हुए और जो दुखी और मूढ़ हुए वे दुष्कृत करते हुए माने और बताए जाने लगे । इसी विचार-सरणि के अनुसार तीर्थकर आदि असाधारण प्रतिभाशाली व्यक्तियों की प्रतिभा का कारण उनके पूर्वजन्म के सुकृत माने गए । जब णायाधम्म कहाओ तत्त्वार्य सूत्र तथा अन्य प्राचीन ग्रन्थों में तीर्थकरत्व की प्राप्ति के लिए दर्शनविशुद्धि आदि १६ गुणों का निर्धारण कर दिया तो कर्म सिद्धान्त के पोषकों के लिए यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि वे तीर्थंकरों के जीवों को पूर्वजन्मों में उन उन गुणों की प्राप्ति के योग्य कर्म करते हुए बताएं । इसके लिये यह सिद्धान्त अपनाया गया कि जिस जीव में तीर्थकरत्व प्राप्ति की योग्यता होती है वह संसार में अनेक जन्म धारण कर भ्रमण करता हुआ उन गुणों को उत्पन्न और विकसित करता है। तीर्थंकरों के जीवों ने उन गुणों को अपने पूर्वजन्मों में किस किस विधि से प्राप्त किया इसी का वर्णन यथार्थ में उनके पूर्व जन्मों का वर्णन हैं। इस प्रकार के वर्णन को ही तीर्थकरों के जीवन चरित्रों के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। यह क्रिया यद्यपि श्रुतांगों के संकलन के समय से ही प्रारंभ हो चुकी थी और जैसा कि आवश्य नियुक्ति और चूर्णि से स्पष्ट हैं इन वर्णनों में परिवर्तन और वृद्धि निरंतर की जाती रही फिर भी उसका सुसंबद्ध और 'विस्तृत रूप जिनसेन के महापुराण और गुणभद्र के उत्तरपुराण में प्राप्त होता है। तीर्थंकरों के पूर्वजन्मों के विषय में समवायांग में पहिली बार यत्किचित् सूचना प्राप्त होती है । इस आगम में पार्श्व के पूर्व जन्म के बारे में यह निर्देश है कि उनके पूर्व जन्म का नाम सुदंसग (सुदर्शन ) था । णायाधम्म कहाओ में मल्लीतीर्थंकर के पूर्व जन्म का संक्षिप्त वर्णन है। कल्पसूत्र में पार्श्व के तीर्थंकर भव का विस्तृत तथा सुसंबद्ध वर्णन मिलता है । किन्तु इसमें पार्श्व के पूर्व जन्मों का वर्णन नही है न हि इस संबंध में कोई निर्देश है । वहां केवल यह बताया गया है कि पार्श्व प्राणत कल्प से अवतरित हुए थे। यतिवृषभ की तिलोयपणति में भी पार्श्व को प्राणत कल्प से ही अवतरित कहा गया है। विमलसूरि ने अपने पउमचरियं में तीर्थंकरों में से ऋषभ, महावीर तथा मल्लि के जीवन चरितों का संक्षिप्त वर्णन किया है किन्तु शेष के विषय में कुछ नहीं कहा है । विमलसूरि के पउमचरियं और रविषेण के पद्मचरित में तीर्थंकरों के संबंध में प्रायः समान सूचना प्राप्त होती है । पद्मचरित के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इसको रचना के समय सभी तीर्थंकरों के पूर्व जन्मों का विवरण निश्चित किया जा चुका था । इस ग्रन्थ में तीर्थंकरों के पूर्वभव के संबंध में सभी पूर्व ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक शीर्षकों के अन्तर्गत सूचना दी गई है। इसमें, तीर्थंकरों के पूर्वभव की नगरियों के नाम, तीर्थंकरों के पूर्व भव के पिताओं के नाम दिए हैं। साथ ही जिस स्वर्ग से वे अवतरित हुए थे उसका भी निर्देश किया है । इस ग्रन्थ के अनुसार पार्श्व के पूर्व भव की नगरी का नाम साकेता, पूर्व भव का नाम आनन्द तथा पूर्वभव के पिता का नाम वीतशोक डामरे था। रविषेण ने पार्श्व को वैजयन्त स्वर्ग से अवतरित बताया है जब कि ति. प. तथा कल्पसूत्र में पार्य को प्राणत कल्प से आया हुआ कहा है । पद्मचरित के पश्चात् के ग्रन्थ हैं जिनसेन का आदिपुराण और गुणभद्र का १. सूत्र २४९ । २. ८ वा अध्ययन । ३. क सू १४० इस ग्रन्थ को इसका वर्तमान स्वरूप वलभी में हुई तीसरी वाचना में दिया गया था । यह वाचना ईसा को ५वीं शताब्दि (४४९) में हुई थी किन्तु विद्वानों का मत है कि यह ग्रन्थ ईसा पूर्व तीसरी सदी में लिखा जा चुका था । ४. इस ग्रन्थ की रचना शक सं. ४९० में हुई मानी गई है- जैन साहित्य और इतिहास पृ. ९,ले. पं. ना. रा प्रेमी । ५. इस प्रन्थ के रचनाकाल के समय के बारे में विद्वान एक मत नहीं । विमलसूरिने स्वयं अपनी रचना का समय वीर-निर्माण संवत् ५३० (विक्रम संवत् ६०) दिया है । परन्तु विद्वानों को इसमें संदेह है । डा. हर्मन जैकोबी इसको भाषा और रचना शैलीपर से अनुमान करते हैं कि यह ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दि की रचना है- सम एन्सिएन्ट जैन वर्क्स-माडर्न रिव्हयू डिसम्बर १९१४ था अंक । केशवलाल ध्रुव इसे और भी अर्वाचीन मानते हैं (दे. जैन साहित्य और इतिहास पृ. ८१ लेखक पं. नाथूरामजी प्रेमी ! ६. यह ग्रन्थ वीर-निर्वाण सं. १२०३ अर्थात विक्रम सं. ७३३ के लगभग लिखागया । ७. पद्म. च. २०. १६. ८. वही २०. २३ ९. वही २०.३०. १०. वही २०. ३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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