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________________ पुनर्जन्म और कर्मसिद्धान्त २७ आत्मा से संबंधित प्रश्नों को वे इस जीवनमें अनावश्यक कह कर टाल देते हैं और उसे अव्याकृत कहते हैं। किन्तु जिस श्रमण संस्कृति की पृष्ठ भूमि में उनके सिद्धान्त पल्लवित हुए उसकी न वे, न उनके अनुयायी अवहेलना कर सके । फलतः पुनर्जन्म के सिद्धान्तको महात्मा बुद्ध के अनुयायी अपनाते रहे जैसा कि धम्मपद से स्पष्ट होता है। इसी कारण से प्राचीन बौद्ध--साहित्य में पुनर्जन्म की कथाओं को आदर का स्थान प्राप्त होता रहा । निदानकथा में तो बद्धत्व की प्राप्ति के लि जन्मों में प्रयत्न करते हुए चित्रित किया गया है। जातक कथाओं में तो बद्ध के जीव को ही अपने अनेक की प्राप्ति हेतु उचित कर्मों को करते हुए बताया गया है। किन्तु बौद्धों में जब महायान का उदय हुआ । और उनने क्षणिकवाद को अपनाया तब बौद्धधर्म में इस पुनर्जन्म के सिद्धान्त को चर्चा का विषय नही बनाया । इसके विपरीत भगवान् महावीरने आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन किया फलतः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की कल्पना को पुष्ट किया। भगवान् महावीर के अनुयायियों ने भी इसे अपनाया और पुनर्जन्म के कारणों पर सूक्ष्म चिन्तन कर उसे एक सिद्धान्त का रूप दिया जो कर्मसिद्धान्त कहलाया। जैन परम्परा में ईश्वर को सृष्टि के कर्ता, संधारक ओर संहारक के रूप में स्थान नहीं इस कारण से इस सम्प्रदाय ने कर्म-सिद्धान्त पर अत्यधिक जोर दिया, इस पर गहन विचार किया और अंत में उसे दर्शन की कोटि में पहुँचाया। क्रिया और उसके फल के संबंध में पूर्वमीमांसा में भी पर्याप्त विवेचन है। किन्तु इस दर्शन में मनुष्य जीवन की सामान्य क्रियाओं के फल पर विचार नहीं किया गया केवल उन्हीं क्रियाओं के फलों पर विचार हुआ है जिन्हें धर्म की दृष्टि से क्रिया माना गया है । इन क्रियाओं से आशय यज्ञ-याग-अनुष्ठानों से है जो विशिष्टविधि से विशिष्ट मंत्रों के उच्चारण के साथ किये जाने पर इच्छित फल देते हैं। उस मत के अनुसार इन धार्मिक क्रियाओं के किये जाने पर एक शक्ति उत्पन्न होती है जिसे अपूर्व कहा है। यह अपूर्व ही फल देने में समर्थ होता है । यह अपूर्व धार्मिक क्रिया को शास्त्रोक्त विधिसे सम्पन्न करने पर उत्पन्न होता है। यदि विधि में कोई त्रुटि हुई तो वांछित फल न्यून हो जाता है, संभव है विपरीत फल प्राप्त हो जाय । मीमांसासूत्रों के अनुसार इन क्रियाओं का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है । पूर्वमीमांसा दर्शन में वर्णित कुछ क्रियाओं से स्वर्ग की प्राप्ति भी होती है पर यह स्वर्ग मरणोपरान्त प्राप्त होने वाला कोई स्थान नहीं वह तो केवल एक सुखमय स्थिति है जो दूख से सर्वथा अछूती है। पूर्वमीमांसा के इस मत के कारण उसमें पूर्वजन्म या पुनर्जन्म के सिद्धान्त की चर्चा ही स्थान नहीं पा सकी न हि व्यापक कर्म-सिद्धान्त । श्रमण संस्कृति द्वारा प्रतिपादित पुनर्जन्म का सिद्धान्त जैन धर्म में कर्मसिद्धान्त के रूप में पल्लवित हुआ। पर इस सिद्धान्त के विकास में किस तीर्थकर या अन्य महापुरुष का किस अंश तक योगदान रहा है यह निश्चित किया जाना कठिन है क्योंकि जन-धार्मिक ग्रन्थ इस बात पर जोर देते हैं कि इस धर्म का मौलिक स्वरूप अनादि है और चौबीसों तीर्थंकरों के उपदेश समान रहे हैं । ऐसी स्थिति में वस्तु-स्थिति की खोज के लिये जैनेतर ग्रन्थों का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है । ऋग्वेद में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का वर्णन प्राप्त है जहां उन्हें केशी और वातरशना मुनि कहा गया है। उनके वेद में प्राप्त वर्णन से यह तो निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि वे वीतराग मुनि थे जो पराङ्मुखी इंद्रियों को अन्तर्मुखी करनेका उपदेश देते थे किन्तु उनके उपदेश के संबन्ध में इससे अधिक और कुछ ज्ञात नहीं हो पाता। श्रीमद्भागवत में भी ऋषभदेव का वर्णन है जिससे उनके जीवन का पूर्ण परिचय मिलता है । इस वर्णन से ज्ञात होता है कि गृहस्थ धर्मका त्याग करते समय उन्होंने अपने सौ पुत्रों को निवृत्ति मार्ग का उपदेश दिया। इस उपदेश में कर्म और कर्माशय शब्दों का प्रयोग तो हुआ है पर वे इसी जीवन में किये कृत्यों या उनके समूह के संस्कार के द्योतक हैं जिनके रहते मुक्ति की १. गाथा १५३, १५५. २. मी. सू. २. १. ५ पर शाबरभाष्य । ३. यन्न दुःखेन संभिन्नं न च प्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषापनीतं च तत् पदं स्वःपदास्पदम् ॥ ४. भरतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृ. ११ से १७, लेखक डा. ही. ला. जैन. ५. श्रीमद्भागवत ५. ५. १-२७ । ६. वही ५. ५.९, १५ ७. वही ५. ५. १४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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