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________________ प्रस्तावना पूर्वजन्म की कथाओं का उद्गम और विकास ___ भारतीय कथासाहित्य में पूर्वजन्म की कथाओं का एक महत्वपूर्ण स्थान है । इन पूर्वजन्म की कथाओं की रचना तभी संभव होगी जब कि आत्मा और उसकी विभिन्नदेहप्राप्ति पर भी एकता तथा अमरता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया जा चका हो। यह सिद्धान्त वैदिकचिन्तन में स्थान नहीं रखता क्योंकि वैदिकचिन्तन ऐहिक जीवन पर केन्द्रित था। उस चिन्तन में मनुष्यकी इच्छापूर्ति जिन याग-अनुष्ठानों के द्वारा संभव मानी जाती थी उन्ही की उहापोह को गई है। यह इच्छापूर्ति भी इसी जन्म से ही संबन्ध रखती थी। समस्त इच्छाओं की पूर्ति की अवस्था केवल सुख की अवस्था होती है। इस चिन्तनमें केवल सुख की अवस्था को स्वर्ग की संज्ञा दी गई थी। इस स्वर्ग की प्राप्ति कुछ यागों के अनुष्टान से संभवमानी जाती थी और वह भी इसी जीवन में । मीमांसा सूत्रों में भी यही बात स्पष्टरूप से कही गई है। उपनिषदों में आत्मा की अमरता को तो स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया है किन्तु पुनर्जन्म के संबन्ध में केवल स्फुट विचार पाये जाते हैं। कठोपनिषद् के ये मन्त्र--- हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम् । यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम ।। २.२.६ योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । स्थाणुमन्ये ऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥ २.२.७ इस बात का निर्देश करते हैं कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार अन्यान्य योनियों में पुनः जन्म ग्रहण करती है । उपनिषदों के पश्चात् जो आस्तिक मत या दर्शन प्रतिपादित हुए उनमें भी आत्मा, जीव या पुरुष की शाश्वतता को अनेकानेक तर्कों से सिद्ध किया गया और उसके द्वारा पुनः पुनः जन्म ग्रहण करने की चर्चा की गई पर उसके द्वारा किये किन कर्मों के कारण वह किन योनियों में जन्म ग्रहण करती है इसकी चर्चा नहीं के बराबर हुई है। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति में पुनर्जन्म संबंधी मान्यता अनादिकाल से स्वीकृत होकर महात्मा बुद्धके समयतक बद्धमूल हो चुकी थी। महात्मा बुद्ध के समय श्रमण संस्कृति के छह वाद वर्तमान थे । उनमें से एक वाद आजीवक सम्प्रदाय के प्रवर्तक मंखरि (या मस्करि) गोशाल द्वारा प्रतिपादित था । मखरि गोशाल का मत था कि- “वे सब जो सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं, कर रहे हैं या करनेवाले हैं उन्हें ८४ लाख महाकल्पों की अवधि पूरी करनी पड़ती है। इस अवधिमें वे अनुक्रम से सात बार कल्पों में देवों के बीच तथा सात बार संज्ञीप्राणियों के रूप में पृथिवीपर उत्पन्न होते हैं ।" गोशाल का यह मत भी था कि प्राणी के अपवित्र होने में न कुछ हेतु हैं न कुछ कारण । बिना हेतु के और बिना कारण के ही प्राणी अपवित्र होते हैं। प्राणि की शुद्धि के लिये भी कोई हेतु नहीं, कुछ भी कारण नहीं । बिना हेतु के ही प्राणी शुद्ध होते हैं। खुद अपनी या दूसरे की शक्ति से कुछ नहीं होता । बल, वीर्य, पुरुषार्थ या पराक्रम यह सब कुछ नहीं है । सब प्राणी बलहीन और निर्वीर्य हैं । वे नियति, संगति और स्वभाव द्वारा परिणत होते हैं, बुद्धिमान और मूर्ख सभी के दुःखों का नाश चौरासी लाख महाकल्पों के फेरे पूरे कर लेने के बाद ही होता है।" गोशाल के इस मत की पुष्टि सूत्रकृतांग से भी हो जाती है। गोशालक के इस मत को ध्यानपूर्वक देखने पर उससे दो बातें स्पष्ट होती हैं- (१) गोशाल पुनर्जन्म में विश्वास करता था; (२) वह पुनर्जन्मको प्राणी द्वारा किये गए कर्मों का फल नहीं मानता था । गोशाल के समकालीन थे महात्मा बुद्ध और भगवान् महावीर । ये दोनों ही श्रमण संस्कृति के पोषक थे किन्तु पुनर्जन्मके संबन्ध में दोनों के मत भिन्न भिन्न थे। महात्मा बुद्धने आत्मा के अस्तित्व के संबंध में कभी कुछ कहना उचित नहीं समझा । उनका कहना था कि संसार के अनेक दुख इस आत्मवाद के कारण ही उत्पन्न हुए हैं। अतः पुनर्जन्म के बारे में उनके विचार स्फुट रूप से व्यक्त नहीं हुए क्योंकि १. प्रकरणपश्चिका पृ. १०२,१०३ । २. मीमांसा सूत्र ४.२.२८ तथा ६. १. १, २ पर शाबरभाध्य । ३. भ. सू ५४९ ४. दीघनिकाय-सामञफलसुत्त । ५. सू कृ. २. ६.' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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