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पार्श्वनाथ और उनके पूर्वजन्म
उल्लेख से यह निश्चित हो जाता है कि यदि माधवसेन के जीवित होने का यदि कहीं उल्लेख हो सकता है तो वह १००२ के पूर्व ही हो सकता है । अन्य शिलालेखों पर दृष्टिपात करने से जानकारी प्राप्त होती है कि हुम्मच के एक शिलालेख में एक माधवसेन का उल्लेख आया है । यह शिलालेख श. सं. ९८४ का है। इसमें लौक्किय बसदि के लिये जम्बहलिल प्रदान करने के समय इन माधवसेन को दान दिये जाने का उल्लेख है । हुम्मच और हिरेआवलि दोनों समीपस्थ गाँव हैं । हिरे आवलि में भट्टारको का पट्ट था यह हमें शिलालेख क्र. २८६ में उल्लिखित माधवसेन की भट्टारक उपाधि से ज्ञात हो जाता है। चूंकि जिस क्षेत्र में मन्दिर-मठ को दान दिया जाता था वह उस क्षेत्र के मठाधीश या भट्टारक को ही दिया जाता था । अतः यह अनुमान सहज है कि शिलालेख क्रमांक १९८ के अनुसार जिन माधवसेन को दान दिया गया वे हिरेआवलि शिलालेखके अनुसार दान पाने वाले माधवसेन से भिन्न नहीं हैं । तात्पर्य यह कि माधवसेन श. सं. ९८४ में जीवित थे और श. सं. १००२ में उन्होंने यह लोक त्यागा । यहाँ एक बात और भी है जो ध्यान देने योग्य है। शिलालेख क्रमांक १९८ पार्श्वनाथ मन्दिर के खंभों पर खुदा हुआ है। संभवतः माधवसेन का पट इसी पवित्र स्थान पर विराजमान था अतः अनुमान है कि माधवसेन के प्रशिष्य पनकीर्ति को अपने पास पुराग (पार्श्वनाथ चरित) लिखने की प्ररणा इस पाव मन्दिर से ही प्राप्त हुई हो। इस तादात्म्य में जो विरोध हिरेआवलि शिलालेखके चालुक्य विक्रम के “४९" वें वर्ष का मानने में उपस्थित होता था, वह उसके चौथे वर्ष का होने में नहीं उत्पन्न होता है। अतः यह अनुमान सर्वथा सही प्रतीत होता है कि हिरे अवलि शिलालेख के माधवसेन ही पद्मकीर्ति के दादागुरु हैं; और चूंकि दादागुरु का समय श. सं. १००२ के आस पास है अतः उनका प्रशिष्य इसके पूर्व का नहीं हो सकता । अर्थात् यदि पद्मकीर्ति के ग्रन्थ की समाप्ति विक्रम संवत् में मानें तो उन्हें श. सं. ८६४ में जीवित मानना पड़ेगा जो कि असंभव है। और यदि उसे श. सं. मान तो उनके संबन्ध की बातें ठीकठीक बैठ जाती हैं।
तात्पर्य यह कि पद्मकीर्ति का समय वि. सं. ९९९ (श. सं. ८६४) नहीं हो सकता । अतः जो ९९९ का वर्ष है जिसमें कि पद्मकीर्तिने अपना ग्रन्थ समाप्त किया वह शक संवत् ही हो सकता है न कि विक्रम संवत् । स्थापना-१. ग्रन्थ की समाप्तिका दिन ९९९ वर्ष के कार्तिक मास की अमावस्या है।
२. पद्मकीर्ति के दादागुरु का नाम माधवसेन और परदादागुरु का नाम चन्द्रसेन है। ३. पद्मकीर्ति के दादागुरु माधवसेन अ र परदादागुरु चन्द्रसेन वे ही हैं जिनका उल्लेख हिरे आवलि शिलालेख ___ में हुआ है। ४. इस शिलालेख का समय चालुक्य वंशीय राजा विक्रमादित्य (षष्ठ ) त्रिभुवन मल्लदेव के शासन का चौथा ___ वर्ष (श. सं. १००२) है। ५. ग्रन्थ की प्रशस्ति में अंकित ९९९ वां वर्ष शक संवत् का है न कि विक्रम संवत् का ।
पार्श्वनाथ और उनके पूर्वजन्म. पासणाहचरिउ में पार्श्वनाथ के दस जन्मों का विवरण दिया गया है । दसवें जन्म में पार्श्वनाथ को तीर्थकर पदकी प्राप्ति होती है। पार्श्वनाथ के इन दस जन्मों के विवरण को अध्ययन हेतु दो भागों में बांटा जा सकता है- (१) पूर्वजन्मों का विवरण, और (२) तीर्थकर-जन्म का विवरण । पार्श्वनाथ के पूर्वजन्मों के विवरण की आवश्यकता को समझने के लिए । पूर्वजन्म की कथाओं के उद्गम और विकास पर दृष्टि डालना जरूरी हो जाता है।
१. जैन शिलालेख संग्रह भाग २ शिलालेख क्रमांक १९८ । २. जैन शिलालेख संग्रह भाग २ । ३. वही ।
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