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________________ २४ प्रस्तावना आचार्य रहे होगे । मनुष्य की आयु तो सौ वर्ष या इससे अधिक की हो सकती है पर ७०-७५ वर्ष तक आचार्य रहे यह असाधारण प्रतीत होता है । अब यदि पासणाह चरिउ की समाप्ति का समय विक्रम संवत् ९९९ माना जाये तो मानना होगा कि वे वि. सं. ९९९ (श. सं. ८६४) के पूर्व और वि. सं. ११८१ (श. सं. १०४७) में भी जीवित थे । यह असंभव है। चूंकि पद्मकीर्ति के गुरु, दादागुरु और परदादा गुरु सेन संघ के थे और हिरेआवलि शिलालेख के चन्द्रप्रभ और माधवसेन भी सेन संघ के थे और 'चूंकि सेन संघ में चन्द्रसेन के शिष्य माधवसेन एक से अधिक होने के प्रमाण अभीतक कहीं प्राप्त नहीं हुये, अतः यह अनुमान भी प्रबल है कि शिलालेख के चन्द्रप्रभ और माधवसेन ही पद्मकीर्ति के दादागरु और परदादा गुरु हैं। . इस समस्त स्थिति पर विचार करने से प्रतीत होता है कि कहीं कोई भूल अवश्य हो रही है । उस भूल की खोज करने में दृष्टि हठात् ही हिरेआवलि शिलालेख के अनुमानित समय पर जाती है । इस शिलालेख का अर्थ लगाने में दो अनुमानों की सहायता ली गई है- एक उसमें अंकित चार की संख्या के संबन्ध में जिस पर ऊहापोह पहले की जाचकी है, और दूसरा उसमें अंकित '....४ नेय 'के पश्चात् और 'संवत्सरद' के पूर्व खुदे किन्तु अधुरे और अस्पष्ट दो अक्षरों के संबन्ध में । ये दो अक्षर गैरोनेट तथा अन्य विद्वानों के अनुसार 'सा धा' हैं जो 'साधारण' शब्द का संक्षेप माने गये हैं। साधारण एक संवत्सर का नाम है; अतः निष्कर्ष निकाला गया है कि चालुक्य विक्रम संवत् ४९, जिस वर्ष का कि यह शिला लेख माना गया है, साधारण संवत्सर था । अब गणना कर देखना है कि क्या यह चालुक्य विक्रम संवत् का ४९ वां वर्ष साधारण संवत्सर था ? जैन शिलालेख संग्रह भाग २ के शिलालेख क्रमांक २८८ से स्पष्ट है कि चालुक्य विक्रम का ५३ वा वर्ष कीलक संवत्सर था । कीलक के पश्चात् सौम्य संवत्सर आता है और उसके बाद आता है साधारण संवत्सर अतः इस शिलालेख क्र. २८८ से सिद्ध होता है कि चालुक्य विक्रम का ५५ वा वर्ष साधारण था । इस तथ्य की पुष्टि शिलालेख क्रमांक २९२ से भी होती है, जिसमें कि साधारण संवत्सर नाम से अंकित है । अतः सिद्ध है कि चालुक्य विक्रम का ४९ वां वर्ष साधारण संवत्सर नहीं था, वह वर्ष शिवावसु संवत्सर सिद्ध होता है। ये संवत्सर ६० वर्ष के चक्र से आते हैं। शिलालेख क्रमांक २०३ से स्पष्ट है कि विश्ववसु संवत्सर श. सं. ९८७ में था और उसके बाद वह श. सं. १०४७ में आना चाहिये । यह श. सं. १०४७ ही विक्रम चालुक्य का ४९ वां वर्षे है । कहना अनावश्यक है कि गैरीनेट आदि विद्वानों से हिरेआवलि शिलालेख के या तो अंक '४' को '४९' या सा. धा. को साधारण होने का अनुमान करने में भूल हुई है। इस भूल को दूर करने के प्रयत्न में दृष्टि शिलालेख क्र. २१२, २१३, और २१४' पर से ज्ञात होता है कि श. सं. ९९९ पिंगल संवत्सर था साथ ही शिलालेख क्रमांक २१७° से यह भी ज्ञात है कि श. सं. ९९९ चालुक्य विक्रम दूसरा वर्ष था । अतः विक्रम चालुक्य का दूसरा वर्ष पिङ्गल संवत्सर के पश्चात् कालयुक्त और तत्पश्चात् सिद्धार्थन् संवत्सर आते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि विक्रम चालुक्य का तीसरा वर्ष कालयुक्त और चौथा सिद्धार्थन् संवत्सर थे । इस निष्कर्ष पर पहुँचने के पश्चात् ही हिरेआवलि शिलालेख के 'अस्पष्ट' अधूरे और अनुमानित सा. धा. अक्षर एक दूसरा ही रूप ग्रहण करते हैं। वह यह कि वे साधा नहीं हैं किन्तु 'सिद्धा' है जो सिद्धार्थन् का संक्षेप है। और चूंकि सिद्धार्थन् संवत् विक्रम चालुक्य के चौथे वर्ष में था अतः हिरेआवलि शिलालेखमें अंकित '४' का अंक '' ही है और उसे '४९' होने का अनुमान करना अनावश्यक है । इस सब का मथितार्थ यह हुआ कि हिरेआवलि का वह शिलालेख वि. चालुक्य के चौथे वर्ष का (श. संवत् १००१-१००२) है। __ इस शिलालेख में इस चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेव के शिष्य माधवसेन भट्टारकदेव की स्वर्गप्राप्ति का उल्लेख भी है। इस १. जैन शिलालेख संग्रह भाग. २ । २ वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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