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________________ कविका परिचय २३ जा सकता है । संस्कृत भाषा के 'नवति' शब्द का प्राकृत अपभ्रंश रूप 'उ' होता हैं । इसी 'उ' में स्वार्थे 'य' ( संस्कृत-क) जोड़ने से उइय शब्द बन जाता है । फिर इस 'उइय' शब्द में समानीकरण ( एसीमिलेशन ) तथा वर्ण लोप की क्रियाएँ अपना कार्य कर उसे 'णुइय' और 'णउय' में परिणित कर देती है । तदनन्तर जब ये 'गुइय' और 'गउय' शब्द उस समास के उत्तरपद बने जिसका पूर्व पद 'उ' हो तब दोनों पों के बीच उच्चारण की सुविधा के लिये 'आ' जोडलिया गया, जैसा कि 'सत्तावीसा' शब्द में किया गया है। और तब 'गउ' और 'णुइय' या 'उय' इन दो पदों के समास का रूप णउ + आ + णुइय या णउ + आ + उयणउआणुइय या णउआणज्य हो गया। इसी सामासिक शब्द में सप्तमी की एकवचन विभक्ति जब जुड़ी तो वह गउआशुइये या गउआगउये बता जिसका अर्थ 'निन्न्यानवे' होगा न कि 'नवे' | अतः स्पष्ट है कि गाथा के णउ आणुइये या णउ आगउये दोनों का एक अर्थ है और जो अर्थ डा. जैन ने ग्रहण किया है केवल वही अर्थ यथार्थ और निर्दोष है । इससे सिद्ध है कि इस ग्रन्थ की रचना नौ सौ निन्न्यानवे वर्ष में समाप्त हुई । अब प्रश्न है कि यह ९९९ वां वर्ष किस संवत् का है विक्रम का या शक का ? कवि ने इस सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं किया । इस संकेत के अभाव में अनुमान को अवकाश मिलता है। जिसका लाभ लेकर डा. जैन तथा प्रो. कोछड ने दो विभिन्न मत स्थापित किये हैं । डा. जैन इस ९९९ को शक संवत् मानते हैं और प्रो. कोछड विक्रम संवत् । इस प्रश्न को हल करने में हमें इस अनुमान से सहायता मिलती हैं कि पद्मकीर्ति एक दाक्षिणात्य थे और दक्षिण भारत में शक संवत् का ही प्रायः उपयोग होता था, न कि विक्रमसंवत् का । विक्रम संवत् के उपयोग में लिये जाने के उदाहरण नहीं के बराबर हैं । अतः संभावना इसी की है कि यह कालगणना शक संवत् में है । इस संभावना को सबल बनाने के लिये पुष्ट प्रमाण ग्रन्थ में उपलब्ध है । पद्मकीर्ति ने अपने गुरु का नाम जिनसेन, दादागुरु का माहउसेग (माधवसेन) बताया तथा परदादागुरु का नाम चन्द्रसेण ( चन्द्रसेन ) बताया है । इस गुरु-शिष्य परम्परा के नामों में चन्द्रसेन (चन्द्रप्रभ ) और माधवसेन के नामों का उल्लेख हिरेआवलि में प्राप्त एक शिलालेख में गुरु-शिष्य के रूप में हुआ है । इस शिलालेख में उसका समय अंकित है जो इस प्रकार है- “ विक्रमवर्षद ४ – नेय साधा संवत्सरद माघ शुद्ध ५ बृ - वार....." चालुक्यवंशीय राजा विक्रमादित्य ( षष्ठ ) त्रिभुवनमल्लदेव शक सं. ९९८ ( ई. सन १०७६ ) में सिंहासनारुढ हुआ था और तत्काल ही उसने अपने नाम से एक संवत् चलाया था। गैरोनेट और तदनुसार जैन शिलालेख संग्रह भाग २ के विद्वान् सम्पादक तथा भट्टारक सम्प्रदाय नामक ग्रन्थ के लेखक के मतानुसार यही संवत् इस शिलालेख में विक्रम वर्षद नाम से निर्दिष्ट है । साथ ही इन विद्वानों ने यह देखकर कि इस शिलालेख में अंकित अंक '४' (चार) के बाद कुछ स्थान खाली है यह अनुमान किया है कि इस चार के अंक के बाद भी कोई अङ्क अंकित रहा है जो अब लुप्त हो गया है और वह लुप्त अंक " ९" (नौ) होना चाहिये । अतः इन तीनों विद्वानों ने इस शिलालेख का समय चालुक्य विक्रम संवत् का ४९ वां वर्ष माना । यह वर्ष शक संवत् का १०४७, ईस्वी सन् का ११२४ और विक्रम संवत् का ११८९ वां वर्ष होता है । अब यदि इस शिलालेख का समय श. सं. १०४७ और उसमें उल्लिजित चन्द्रसेन और माधवसेन को पद्मकीर्ति के परदादागुरु माना जाय तो मानना पड़ेगा कि श. सं. १०४७ में मात्रवसेन जीवित थे क्योंकि उक्त शिलालेख के अनुसार उन्हें ही दान दिया गया था । और यदि पद्मकीर्ति के ग्रन्थ की समाप्ति का वर्ष शक संवत का ९९९ वां वर्ष माना जाता है तो मानना होगा कि पद्मकीर्ति के दादागुरु इसके पूर्व भी ( संभवतः - २५ से ३० वर्ष पूर्व) अवश्य ही १. पा. सहमहण्णवो पृष्ठ ४७४ २ हेमन्द्र व्याकरण ८.१.४ की वृत्ति । ३. हे. ८.१.४ ४. दे. जैन शिलालेख संग्रह भा. २ शिलालेख क्र. २८६ पृ. ४३६ माणिक्यचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थ माला पुष्प ४५ । ५. हिस्ट्री एण्ड कल्चर आफ दी इंडियन प्यूपिल व्हा ५ पृ. १७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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