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________________ २२ प्रस्तावना कारण इस प्रशस्ति की प्रामागिकता पर संदेह हो सकता है। संदेह का एक कारण यह भी हो सकता है कि वह प्रशस्ति उस छंद में लिखी गई है जो अपभ्रंश भाषा का नहीं है और इस छन्द का प्रयोग कविने अपने ग्रन्थ में अन्यत्र नहीं किया है । यह छंद गाथा छंद है। उक्त प्रशस्ति का सभी प्रतियों में न पाया जाना लिपिकारों का प्रमाद हो सकता है। हो सकता है यह प्रशस्ति कविने बाद में उस समय जोड़ी हो जब उसकी प्रतियां निकल चुकी थीं । वैसे जो भावना कविने उस प्रशस्ति में व्यक्त की है, जिस आत्मानुभूति की प्रेरणा की उसमें चर्चा है तथा हृदय का जो भाव उसमें अभिव्यक्त है उससे यह संभावना प्रकट नहीं होनी चाहिये कि यह प्रशस्ति ग्रन्थ के लेखक के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखी गई है। जहाँ तक छंद का प्रश्न है हम जानते हैं कि अपभ्रंश के अग्रगण्य लेखक पुष्पदंतने अपने णायकुमार चरिउ की प्रशस्ति का एक भाग इसी गाथा छंद में लिखा है। इस प्रशस्ति को गाथा छंद में लिखने की प्रेरणा कवि को पुष्पदंत से ही मिली हो । जिसमें कविने रचनाकाल का उल्लेख किया है वह गाथा यह है :--- णव-सय-णउआणउये कत्तियमासे अमावसी दिवसे । रइयं पासपुराणं कइणा इह पउमणामेग ।। इस गाथा से यह तो निर्विवाद है कि कविने अपनी रचना कार्तिक मास की अमावस्या को पूरी की। जो बात विवादग्रस्त है वह यह कि कार्तिक मास किस शताब्दि के किस वर्ष का है । इस विवादग्रस्तता का कारण 'गवसयणउआणउए' शब्द हैं जिनके एक से अधिक अर्थ हो सकते हैं। अभीतक दो विद्वानों ने इनका भिन्न भिन्न निर्वचन किया है। डा. हीरालाल जैन उन शब्दों का अर्थ नौ सौ निन्यानवे लगाते हैं तथा प्रो. कोछड नौ सौ वेआन्नवे लेते हैं । यह अर्थभेद उन दो विद्वानों के समक्ष गाथा के दो भिन्न भिन्न पाठ होने के कारण हुआ प्रतीत होता है । डा. जैन के सामने वह पाठ था जो ऊपर उद्धृत है, किन्तु प्रो. कोछड़ के सामने आमेर भण्डार, जयपुर की प्रति का पाठ था जिसमें 'णवसयणउ आणउये के स्थान पर णवसय णउ वाणुइये पाठ है । इस द्वितीय पाठ के 'वाणुइये' शब्द का अर्थ वेआन्न। (द्वानवति) कर लेना सहज ही है, और प्रो. कोछड़ ने किया भी यही है । किन्तु इस अर्थ को ग्रहण करने से एक कठिनाई उपस्थित होती है जिस पर प्रो. कोलड़ ध्यान नहीं दे पाये । 'वाणुइये' का अर्थ वेआन्नवे यदि लिया जाता है तो उसके पूर्व जो ‘णउ' शब्द हैं उसकी सार्थकता जाती रहती है, क्योंकि इस स्थिति में पूरी अभिव्यक्ति का अर्थ 'नौसौ नौ वेआन्नवे' पड़ता है। जहाँ दूसरा “ नौ” सर्वथा निरर्थक है, क्योंकि उस के बिना ही 'नौ सौ बेयान्नवे' अर्थ असंदिग्ध और र्ण रूप से प्राप्त होता है। द्वितीय 'ण' की इस निरर्थकता से बचने के लिये 'वाणुइये' का दूसरा अर्थ करना आवश्यक हैं जो सर्वथा संभव भी है और जिसे डा. जैन ने ग्रहण किया है । वह अर्थ है 'आन्नवे' जो 'गउ' के साथ निन्यानवे (नवनवति) अर्थ देता है। दोनों पाठों को ध्यान से देखने पर दोनों पाठों का यथार्थ विरोध लुप्त होजाता है और वे दोनों एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं । 'वाणुइये' और 'आगउये' पाठों में पहले अक्षर 'व' और 'अ' तथा चौथे अक्षर 'इ' और 'उ' का ही भेद है जो सरलता से दूर हो जाता है । यह सर्वज्ञात है कि प्राकृत भाषा में 'अ' के स्थान पर 'व' श्रुति का उपयोग उच्चारण सौकर्य के लिये किया जाता है । पासणाहचरिउ में इस श्रुति का प्रचुर उपयोग हुआ है साथ ही 'उ' के पश्चात 'व' श्रति के उपयोग में लिये जाने के उदाहरण भी प्राप्त हैं जैसे सुवै. थुवै. भुर्व आदि । अतः माना जा सकता है कि 'वाणुइये' में 'व' केवल श्रुति है । एक भिन्न दृष्टि से विचार करने पर दोनों पाठों के 'इ' और 'उ' का भेद भी दूर किया १. अपभ्रंश साहित्य-पृ २०८, लेखक प्रो. कोछड़ । २. पा. च. १४.१४. ४. ३. वही १७. २३. १० ४. पा. च.५ ४.६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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