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________________ कविका परिचय किया है तथा ग्रन्थ के अन्त में भी प्रशस्ति के रूप चार पद्य भी हैं, किन्तु इनमें भी कविने न अपने माता-पिता का नाम दिया है न अपने कुल और न उस स्थान का जहाँ उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की होगी । प्रशस्ति यह : जइ वि विरुद्धं एयं णियाणबंधं जिर्णिद तुह समये । तह वि तुह चलण- कित्तं कइत्तणं होज्ज पउमस्स ॥१॥ इयं पास पुराणं भमिया पुहवी जिणालया दिट्टा । इण्ई जीविय - मरणं हरिस-विसाओ ण पउमस्स ॥२॥ सावय-कुलम्मि जम्मो जिणचलणाराहणा कइतं च । एयाइँ तिण्णि जिणवर भवि भवे हुंतु पउमस्स || ३ || व-सय-उ-आणउये कत्तिय मासे अमावसी दिवसे । रइयं पास-पुराणं करणा इह पउमणामेण ||४|| इस प्रशस्ति का सार संक्षेप यह है- पउमने पार्श्वपुराण की रचना की, पृथ्वी पर भ्रमण किया और जिनालयों के दर्शन किये अब उसे जीवन मरण के संबन्ध में कोई सुख दुःख नहीं है । श्रावक कुल में जन्म, जिनचरणों में भक्ति तथा कवित्व ये तीनों, हे जिनवर, पद्मको जन्मान्तरों में प्राप्त हो । अन्तिम पद्य में कवि ने अपनी रचना के समय का उल्लेख किया है । सामान्यतः जैन मुनि गार्हस्थ्य जीवन से विरक्त होते हैं अतः माता-पिता का या अपने कुल आदि का वे कदापि उल्लेख नहीं करते वे तो उन्हीं आचार्यों का स्मरण करते हैं जिन्होंने भवसागर पार उतरने का मार्ग दिखाया । इसी मान्यता को अङ्गीकार कर पद्मकीर्ति ने ग्रन्थ के अन्तिम कडवक में जपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख किया है । वह गुरु-परम्परा यह है : : चंदसेण ( चन्द्रसेन ) माहवसे ( माधवसेण ) जिणसेण (जिनसेन ) T Jain Education International २१ उमकित्ति (पद्मकीर्ति) ये समस्त आचार्य सेन संघ के थे, जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है । सेन संघ दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध संघ रहा है | इसी संघ में धवलाटीकाकार वीरसेनाचार्य तथा आदिपुराण के रचयिता जिनसेनाचार्य जैसे रत्न उत्पन्न हुये । हम अनुमान लगा सकते हैं कि संभवतः पद्मकीर्ति एक दाक्षिणात्य थे । इस अनुमान की पुष्टि पा. च. में उपलब्ध इन इन प्रमाणों से भी होती है : १. पा. च. में इसका उल्लेख है कि पार्श्व के मामा तथा कुशस्थली के राजा रविकीर्ति ने अपनी कन्या प्रभावती का विवाह पार्श्व के साथ करने का निश्चय किया था । मामा की कन्या से विवाह करने की पद्धति उत्तर भारत में नहीं थी केवल दक्षिण भारत में ही थी और आज भी प्रचलित है । पद्मकीर्ति को यह संबन्ध मान्य हुआ अतः वे दक्षिण के निवासी होंगे । २. युद्ध का वर्णन करते हुये पद्मकीर्ति ने लिखा है कि 'कण्णाडमरहट्टहिं अहव महिहिं भणु कोण गिजिउ - कर्णाटक ओर महाराष्ट्र के निवासियों के द्वारा, बताइए, युद्ध में कौन नहीं जीता गया । इन प्रदेशों के वीरों को इतनी श्लाघा का कारण केवल जन्मभूमि प्रेम ही हो सकता है । काल निर्णय - ग्रन्थ की प्रशस्ति में कविने गन्थ के रचना - काल का उल्लेख किया है । इस प्रशस्ति के संबन्ध में यह ध्यान देने योग्य है कि वह ग्रन्थ की सन् १४७३ में लिखित सबसे प्राचीन प्रति में उपलब्ध नहीं है किन्तु इसके बाद की अन्य जो प्रतियां आमेर भण्डार में सुरक्षित हैं, उन में यह प्रशस्ति पाई जाती है । सबसे प्राचीन प्रति में न होने के १. पा. च. १३. ३. २. पा. च. ११. ६. २३. For Private & Personal Use Only P www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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