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प्रस्तावना
५. दोनों प्रतियों में अनेक स्थानों पर मध्यवर्ती 'य' के स्थान में 'इ' लिखा है। इसे 'य' में परिवर्तित करदिया है तथा इसका पाठभेद अंकित नहीं किया किन्तू जहाँ गइंद, गयंद, मईद जैसे शब्द यदि दानों प्रतियों में समान रूप से आये हैं तो उसे उसीरूप में ग्रहण किया हैं और यदि दोनों प्रतियों में पाठ भिन्न है तो क प्रति का पाठ ग्रहण किया है।
६. मुणेद, मुणिंद, जिणेंद, जिणिंद जैसे शब्दों में से मुणिंद आदि को ग्रहण किया हैं और अन्य को पाठभेद में दिया हैं।
७. चूंकि दोनों प्रतियों में न और ण के उपयोग में कोई एक नियम का पालन नहीं हुआ अतः न को सर्वत्र ण में परिवर्तित कर दिया है तथा तत्संबन्धी पाठभेदों को नहीं दिया है।
८. दोनों प्रतियों में व तथा ब के स्थान में केवल व का ही उपयोग हुआ है । इस व को यदि वह उस शब्द में आया हैं जिसके संस्कृत रूप में 'ब' है तो उसे 'ब' में बदल दिया है । इसके पाठभेद को अंकित नहीं किया है।
९. दोनों प्रतियों में 'च्छ' तथा 'स्थ' बहुधा समान रूप से ही लिखे गये हैं। संदर्भ से ज्ञात हो जाता है कि कौन कहाँ उपयुक्त है । उपयुक्तता देखकर इनमें किसी का उपयोग किया है।
१०. दोनों प्रतियों में 'ट' तथा 'ड्ढ' को द्वित्व 'दृ' या 'ड' के रूप में लिखा हैं इसे आवश्यकतानुसार सुधार दिया है।
११. प्रतियों में अकारान्त पुल्लिंग शब्द के सप्तमी एकवचन रूप को 'ए' अथवा “इ” से व्यक्त किया है। जहाँ दोनों प्रतियों में यह एकरूप से आया वहां उसे उसी रूपमें ग्रहण किया है किन्तु जब प्रतियों में विभिन्नता आई है तो क प्रति का पाठ ग्रहण किया है तथा अन्य को पाठान्तर के रूप में दिया हैं।
१२. प्रतियों में हस्व 'ए' तथा 'ओ' की मात्राओं को दीर्घ 'ए' तथा 'ओ' के रूप में ही लिया है। छन्द की आवश्यकतानुसार इन्हें हस्व कर दिया है । मुद्रित प्रति में हस्व 'ए' और 'ओ' उल्टी मात्राओं (', आ) से दर्शाए गये हैं। जहाँ 'ए' अक्षर रूप से आया हैं और वह हस्व है वहाँ उसे 'ऍ' रूप से लिखा है।
१३. हेमचन्द्र व्याकरण में 'तणउ' तथा 'सह' को अनुनासित माना है किन्तु सम्पादित पाठ में इन दो शब्दों को अनुनासित नहीं किया गया है तथा उनके पाठ भेद भी नहीं दिए गये हैं।
१४. हेमचन्द्र व्याकरण (८.४.३५४) के अनुसार नपुंसकलिंग तथा स्वार्थे 'य' (क) युक्त शब्दों के प्रथमा एकवचन रूप अनुनासित होना चाहिये । इन रूपों को सम्पादित प्रति में अननुनासित ही रखा गया है। इनके पाठ भेदों को भी अंकित नहीं किया गया है।
१५. 'व' के संबन्ध में यह एक प्रवृत्ति दोनों प्रतियों में दिखाई देती है कि 'व' यदि अनुनासिक के पश्चात् आता है तो वह 'म' में परिवर्तित कर दिया जाता है तथा पूर्व के अनुनासिक का लोप भी करदिया जाता है। सम्पादित प्रति में पूर्व के अनुनासिक को अपने रूप में ही रखा गया है पर 'मि' को पुनः 'वि' में परिवर्तित नहीं किया । कवि का परिचय
पा. च. की प्रत्येक संधि के अंतिम कडवक के धत्ते में 'पउम' शब्द का उपयोग किया गया है । इस 'पउम' का अर्थ कमल या लक्ष्मी हो सकता है जो संदर्भ में उपयुक्त बैठता है। किन्तु चतुर्थ संधि के अन्तिम धत्ते में 'पउम भणइ तथा पाँचवीं, चौदहवीं और अठारहवीं संधियों के अन्तिम धत्तों में 'पउमकित्ति' शब्द के उपयोग से यह निश्चित हो जाता है कि यह 'पउम' नाम है और वह भी ग्रन्थकार का । १४ वीं तथा १८ वी सन्धियों के अन्तिम धत्तों में उनका पूरा नाम है और वह भी ग्रन्थकार का । १४ वीं तथा १८ वी सन्धियों के अन्तिम धत्तों में उनका पूरा नाम 'पउमकित्ति' (सं. पद्मकीर्ति ) आया है और उसके साथ 'मुणि' (सं. मुनि) शब्द भी जुड़ा है। इससे पता चलता है कि ग्रन्थकार एक मुनि थे। और उनका पूरा नाम पद्मकीर्ति मुनि था । पा. च. के अन्तिम कडवक में लेखक ने अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख
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