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________________ सम्पादन पद्धति २. 'रु' को 'तु' भी लिखा है अतः इसमें और तु में भ्रान्ति होती है । ३. 'घ' तथा 'घ' में भेद नहीं किया गया है । ४. 'क्ख' को सर्वत्र एक रूप से लिखा है । ५. यदा कदा 'य' के लिये 'इ' तथा 'व' के लिये 'उ' उपयोग में लिया गया हैं । 'इ' का उपयोग 'ए' के लिये भीं किया गया है। (आ) क प्रति में : १. 'च्छ' 'ज्झ' तथा 'त्थ' के लिए बहुधा 'छ', 'झ' और 'त' का उपयोग हुआ हैं । २. साधारण व्यञ्जन को जब तब अनावश्यक रूप से ही संयुक्त व्यञ्जन बना दिया गया है । ३. पाद के अन्त को व्यक्त करनेवाले दण्ड को अक्षर के इतने समीप और बराबरी से रखा है कि वह अक्षर का भाग ही प्रतीत होता है । ४. अनुनासिक पदान्त व्यक्त करने के लिए किसी चिह्न का उपयोग नहीं किया । (इ) व प्रति में १. ओ को 'उ' रूप से लिखा है तथा कई स्थानों पर वह केवल 'उ' ही रह गया है । २. 'ढ' के स्थान में कई स्थानों पर 'ठ' का उपयोग किया गया है । सम्पादन पद्धति १९ -- ३. 'उ' के लिए 'ऊ' काम में लिया गया है । ४. 'ड' को बहुधा 'डू' के रूप में लिखा है । ५. 'हं' के स्थान में 'ई' बहुधा लिखा गया 1 ६. अनुनासिक पदान्त व्यक्त करने के लिये अनुस्वार का उपयोग किया है । अनपेक्षित स्थानों पर भी अनुस्वार का उपयोग हुआ है । सम्पादन कार्य निम्न नियम निर्धारित कर किया गया है:-- १. शब्दों की वर्तनी में परिवर्तन कर किसी एक शब्द की सर्वत्र समान वर्तनी बनाने का प्रयत्न नहीं किया गया । ग्रहण किया है किन्तु यदि अन्य स्थान यदि दोनों प्रतियों में एक स्थान पर एक शब्द की समान वर्तनी प्राप्त हुई तो उसे पर उसी शब्द की वर्तनी दोनों में भिन्न हुई तो क प्रति का पाठ ग्रहण किया है रूप में किया है । तथा ख प्रति के पाठ को पाठान्तर के Jain Education International २. य तथा व श्रुति में कोई भेद नहीं किया है तथा इन्हें बिना किसी पक्षपात के ग्रहण किया है । तात्पर्य यह है कि यदि क प्रति में व श्रुति आई है और ख प्रति में य तो क प्रति के पाठ को ग्रहण करने के श्रुतिवाला पाठ लिया है । नियम के अनुसार व ३. यदि दोनों प्रतियों में किसी लुप्त व्यञ्जन के स्थान पर केवल 'अ' लिखा है तो वहाँ अपनी ओर से 'य' या 'व' श्रुति को नहीं जोड़ा है । किन्तु यदि किसी श्रुति में उस अ के साथ कोई श्रुति आई हो तो उसे ग्रहण किया है । ४. जिन स्थानों पर लुप्त व्यञ्जन का अवशिष्ट 'अ' छंद के अन्त्य यमक में आया है तथा उसके तत्स्थानी यमक में किसी प्रति में यह 'अ' किसी श्रुति के साथ आया है तो उसे दोनों स्थानों पर 'अ' कर दिया है तथा उसका पाठ-भेद अंकित नहीं किया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org T
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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