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________________ प्रस्तावना छ । प्रमादनिद्रा भयकार्ययुक्ता हीनाक्षरं बिंदु पदस्वरं च यदि अशुद्धमे मयं पुराणं तत्सुद्ध कर्तव्य नरैः बुधज्ञः । याद्रिसं पुस्तकं दृष्ट्वा तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमसुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ ॥ तैलं रक्षेजलाद्रक्षेद्रक्षेत्सिथिलबंधनात् । परहस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तकः ॥ ॥ मंगलमहाश्री ।। शुभमस्तु ।।" यद्यपि यह प्रशस्ति भाषा की दृष्टि से बहुत अशुद्ध है तथापि इससे हमें इस प्रति की रचना के संबन्ध में निम्न चार बातें स्पष्टतः ज्ञात होती हैं: १. – यह प्रति-वीर भानदेव के राज्यकाल में तथा भट्टारक पद्मनंदि के पट्टपर विराजमान रहने की अवधि में लिखी गई है। २. - प्रति लिखवाने की प्रेरणा जैसवाल कुलोत्पन्न साधु दीटदेव ने दी। ३. लिपिकार का नाम रत्न तथा उसके पिता का नाम लोणिग था । ये कायस्थ वंश के थे। ४. प्रति बनाने का कार्य १४६३ में प्रारम्भ हुआ तथा यह कार्य उसी वर्ष के फाल्गुन मास में समाप्त हुआ। इस प्रति की प्रशस्ति में भट्टारकों की निम्न लिखित परम्परा का उल्लेख है:मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ, कुन्दकुन्दान्वय रत्नकीर्ति प्रभाचन्द्र पद्मनन्दि इस परम्परा से सुस्पष्ट है कि भट्टारक सम्प्रदाय नामक पुस्तक के लेखक ने जिसे बलात्कारगण की उत्तरशाखा नाम दिया है ये भट्टारक उसी शाखा के हैं । इस पुस्तक के विद्वान लेखक ने पद्मनन्दि के पट्ट पर विराजमान रहने का समय संवत् १३८५ से संवत् १४५० अन्तै कहा है । किन्तु इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि वे १४७३ में भी पट्ट पर विराजमान थे । यह प्रति जैसवालकुलोत्पन्न साधु दीटदेव की प्रेरणा से लिखवाई गई थी। तेरापंथी मंदिर जयपुर में सुरक्षित णायकुमार चरिउ की प्रेति भट्टारक पद्मनन्दि के प्रशिष्य श्री जिनचन्द्र के पट्ट पर विराजमान रहने की अवधि में जैसवालान्वय के साधु साणाई द्वारा लिखवाई गई थी। प्रति लिखवाने का समय १५५८ संवत् है। संभावना है कि साधु दीटदेव साधु साणाई के पूर्वज होगे। यदि यह बात है तो इस जैसवाल कुल में धार्मिक ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ लिखवाने के पवित्र कार्य की परंपरा रही है। इस प्रति के अन्तिम पृष्ठ पर भिन्न स्याही और भिन्न अक्षरों में ये शब्द अंकित हैं: "भ० श्री देवेन्द्रकीर्तिकुमुदचन्द्र तत्प? श्री धर्मचन्द्रस्येदं" । प्रायः ये ही शब्द कारजा भण्डार में सुरक्षित णायकुमार चरिउ की एक प्रति पर अंकित हैं। इन शब्दों से स्पष्ट है कि यह प्रति श्री धर्मचन्द्र की सुरक्षा में कुछकाल तक रही थी। __ इन दोनों प्रतियों की लिपि-संबन्धी जो विशेषताएं हैं वे निम्नानुसार हैं:(अ) दोनों प्रतियों में १. 'च' और 'व', 'स्थ' और 'च्छ', 'ड' और 'ढ' तथा 'य', 'प' और 'ए' में भेद नहीं किया गया तथा वे एक दूसरे के स्थान पर काम में आये हैं। १ देखिए - भट्टारक सम्प्रदाय - लेखक डा. विद्याधर जौहरापुरकर, पृष्ठ - ९३ से ९६. २. वही. ३. डा. होरालाल जैन द्वारा सम्पादित णायकुमार चरिउ की प्रस्तावना पृष्ठ १४. ४. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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