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________________ ५२] पार्श्वनाथचरित [६,१० १० सन्देशसे रविकीर्तिको क्रोध __ "उन शब्दोंको सुनकर रविकीर्ति धधकती हुई अग्निके समान प्रज्वलित हो उठा। “रे दुर्मुख, दुप्कुल, दुष्ट, पापी, निष्ठुर, खलस्वभाव दूत, तू बहुत बोल चुका । अपने स्वामीके समान तू भी कुलहीन, जातिहीन और बुद्धिहीन है। तू बोलनातक नहीं जानता ? तू हताश, निराश और दीन है। नय और विनयसे रहित तू बालकके समान अज्ञानी है। हे पापकर्मा, तू बोलना भी नहीं जानता और न अवसर ही पहचानता है। तू धर्मभ्रष्ट है। कल ही मैं उस यवनको सिरपर मुग्दर मारकर दण्ड दूंगा तथा सब योद्धाओंके साथ उसकी पूरी सेनाको मार गिराऊँगा । वह बेचारा यवन हमारे लिए क्या चीज़ है।" दृढ़तापूर्वक यह कह उसने दूतका सिर उसी समय मुड़वाया, उसकी भर्त्सना की और कहा-"रे अनयके भण्डार दूत, तू इस सभाभवनसे उठ जा।" “रे दूत, यह एक सन्देशा तू यवनराजसे कहना--"मैं तुझे सामन्तोंके सहित मारूँगा। तु पुनः जीवित घर नहीं पहुँचेगा" ॥१०॥ ११ यवनराजका रविकीर्तिके नगरपर आक्रमण "वह दूत, जिसका अंग-अंग क्रोधानलकी ज्वालासे झुलस रहा था अपना मान भंग कराकर वहाँसे निकला। फिर निमिषके अर्धा में ही वह, जहाँ यवन राज था, वहाँ पहुँचा । यवनराजको प्रणामकर उसने रविकीर्तिके साथ जो जैसी बात हुई बताया—"हे देव, वह आपको तृण-तुल्य भी नहीं समझता, न भेंट ( नजराना ) देता नहि सेवा करना स्वीकार करता। यह सब समझ-बूझकर, हे राजन्, यदि आपमें शक्ति है तो कोई उपाय शीघ्र कीजिए।" इन शब्दोंको सुनकर यवन उसी प्रकार कुपित हुआ जैसे गजके ऊपर सिंह । "युद्धभूमिमें उसकी ( रविकीर्तिकी) भुजाओंकी विशेषता देखकर मैं उसका देश कल ही अपने वशमें करूँगा। उसका अत्यन्त श्रीसम्पन्न नगर उखाड़ फेंकूँगा और उसके शरीरको बाणोंसे बेध डालँगा"-ऐसा कहकर तथा भृकुटी चढ़ाकर वह योद्धाओंके साथ युद्धके लिए चल पड़ा।" “गर्जना करते हुए, अभिमानमें चूर और हाथी, घोड़ा तथा रथोंसे सुसज्जित उस यवनाधिपने रविकीर्ति राजाकी सेनापर आक्रमण किया" ॥११॥ हयसेनकी प्रतिज्ञा दूतकी यह बात सुनकर हयसेनने अपने सामन्तोंसे कहा-"उस यवनका गर्व तो देखो, वह खल-स्वभाव ( इस प्रकार ) बोलनेमें भी नहीं लजाता । यह यवन है कौन ? वह कैसा जीव है जो अज्ञानी बालकके समान बोलता है ! (इसे ) देखो तो, इस प्रकार बोलते हुए उस पापीकी जिह्वाके सौ टुकड़े क्यों न हो गये ! यद्यपि पुण्य (के फल) से उसने राज्य पा लिया है तथापि वह हीन-जाति होनेके कारण निर्लज्ज है। किसी कार्यके सम्बन्धमें वह बोलना नहीं जानता तथा अन्यायपूर्वक पूरा राजकाज चलाता है । यदि कल ही युद्ध में सामन्त, योद्धा, हाथी और घोड़ोंके साथ उसका नाशकर उसका मानमर्दन न किया तो मैं हयसेन नाम ही धारण नहीं करूँगा । ___ भृकुटि के कारण भयंकर ( अतः ) प्रलयकालके सूर्यके समान अशोभन उस राजाने सामन्तोंके साथ सभा-भवनमें ही ( उक्त ) प्रतिज्ञा की ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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