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६,६] अनुवाद
[५१ तब राजा हर्षपूर्वक उससे बोले- "हे महामति दूत, तुम कुशलतासे तो हो ? जिस कार्यसे तुम वाराणसी नगरीमें आये हो उसे शीघ्र बताओ।" ॥६॥
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दूत द्वारा कुशस्थल नगरके राजा द्वारा दीक्षा लेनेके समाचारका कथन
राजाके भव्य वचन सुनकर दूतने प्रणाम किया और कहा-"इस संसारमें कुशस्थल नामका एक नगर है। तीनों लोकोंमें भी उसके समान कोई दूसरा (नगर) नहीं है। वहाँ महान् यशस्वी और संपत्तिशाली राजा निवास करता था। उसका नाम शक्रवर्मा था । वह इस लोकमें बृहस्पतिके समान बुद्धिमान् था और ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई देव इस ( पृथिवी ) पर उतर आया हो। राज्य करते-करते उसे गृहस्थाश्रमसे वैराग्य हो गया। उस नृपतिने अपने पुत्रको राज्यभार सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। उसका पहिला पुत्र रविकीर्ति है, जो बलिष्ठ भुजाओंवाला है तथा उसका यश अक्षुण्ण है। हे स्वामी, मैं उसीके आदेशसे यहाँ आया हूँ और आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। उसने आपके पास कुशल समाचार भेजा है। (वह यह है कि) "आपकी सेवा हमें इस जन्ममें इष्ट है । आप मुझे जो भी आज्ञा दें मैं अपने परिजनोंके साथ शीघ्र ही उसका पालन करूँगा।"
“हे राजाओंके स्वामी, मेरे पिताके ( वरद ) हस्तके दूर हो जानेसे अब आप (हम) सबकी चिन्ता करें, आपके चरणोंको छोड़कर कोई दूसरी गति हमारे लिए इस पृथिवीमें नहीं है" ||
समाचारसे हयसेनको दुःख दूतके वचन सुनकर हयसेन अपने सज्जन-सम्बन्धीके लिए रुदन करने लगा--"हा शक्रवर्मन् ! नरश्रेष्ठ ! वीर !
भाग लेनेवाले! हा श्वसर ! कर्यदक्ष! उज्ज्वल-नाम ! शुभेच्छु ! स्वजन! वात्सल्ययुक्त! मनको भले लगनेवाले ! सहस्रों सामन्तों द्वारा सेवित ! देव ! आप हमें छोड़कर कहाँ गये ? क्या हमने आपकी किसी आज्ञाका उल्लंघन किया जो आप हमें त्यागकर धर्ममें लीन हुए ? अथवा हे पृथिवीके स्वामी, आप ही धन्य हैं, जिन्होंने अनेक गुणोंसे प्रशस्त दीक्षा ग्रहण की। जिसने पंचेन्द्रियरूपी अश्वोंको वशमें कर लिया है उसके समान दूसरा कौन है ? हम जैसे आज भी विषयोंके लोभी, एवं परिग्रह और क्रोधयुक्त हैं। हम अशक्त तप करनेमें असमर्थ हैं तथा पञ्चेन्द्रियोंके वशीभूत होकर कामासक्त रहते हैं।" जब (हयसेन) इस प्रकार अपनी निन्दा कर रहा था तब उसका हृदय शोकसे भर गया।
श्वसुरके वियोगसे दुखी वह नृपति मूच्छित हो पृथिवीपर गिर पड़ा। पूरा सभा-भवन उसके रुदनके कारण अश्रजलसे परिप्लावित हो गया ॥८॥
दूत द्वारा रविकीर्ति के राज्य करने तथा यवनराज द्वारा उसे भेजे गये सन्देशकी प्राप्तिके समाचारका कथन
राजा हयसेनको स्नेहबद्ध जानकर दूतने नमस्कारपूर्वक विनती की- "हे देव, अथाह, अगाध और अपार जलसे युक्त यमुना नदीके तीरपर दुर्गम प्रदेशमें एक नगर है जिसकी उपमा पूरे मण्डलमें दी जाती है। उस नगरका स्वामी यवन नामका है। उसकी चतुरंगिणी सेना अपार है । उसने शक्रवर्माको परोक्षगत जानकर एक बुद्धिमान् और लक्षणयुक्त दूत भेजा। उसने कहलवाया कि "तुम अपनी कन्या हमें दो और इसमें विलम्ब मत करो। हे राजन् , तुम मेरे प्रति सेवाभाव रखो, आज्ञाको स्वीकार करो और भेंट ( नजराना ) दो। अतः पश्चात् मैं जो राज्य दूँ उसीका तुम उपभोग करो। दिन-प्रतिदिन ( मेरे प्रति )
नेह भाव रखो, मेरे प्रति सेवकका भाव प्रदर्शित करो तथा मेरी आज्ञाका पालन करो। इतना सब करके ही तुम अपने प्राणोंकी रक्षा कर सकते हो।"
"हे कुशस्थल नगरके स्वामी, यदि तुमने यह सब नहीं माना तो तुम और ( तुम्हारे ) सामन्त तथा योद्धा युद्धमें जीवित नहीं बचेंगे" ॥९॥
इषंपवकस्नह मारला,
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