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________________ दूसरी सन्धि नगरसमूहों द्वारा सुशोभित पृथ्वीको छोड़कर (तथा) समस्त राज्यका त्यागकर अरविन्द जाकर मुनीन्द्र हो गये । १ अरविन्दका सुखमय जीवन सम्पत्ति और धनसे सुशोभित थे, अन्तःपुर के प्रेमरसमें डूबे हुए थे, चाणक्य जानते थे, तरह-तरहकी क्रीडाओंमें लीन थे, दान और प्रसाद बहुत दिया राज्य करते हुए राजा अरविन्द सुख, ( के अर्थशास्त्र ) और भरत ( के नाट्यशास्त्र ) को करते थे, अनेक हाथी और घोड़ोंके स्वामी थे, नगर, खनि और पुरों ( की आय ) का भोग करते थे, उनका पृथ्वीपर एकछत्र राज्य था, अपनी कीर्तिसे भुवनको शुभ्र बनाते थे, गुरुके चरण युगलकी सेवामें मग्न रहते थे, उनका प्रसन्न मुख कमल -समान था; ज्ञान, चिज्ञान और गुणोंसे युक्त थे; अभिमानसे प्रचण्ड शत्रुओंका नाश करते थे; नय और विनय में स्थित उनका चित्त स्थिर रहता था; ( इस प्रकार ) वे इन्द्रके समान ( पृथ्वी तलपर) निवास करते थे । हृदयसे जिनकी अभिलाषा होती है ऐसे गुणोंसे सम्पन्न वे जब राज्य कर रहे थे, तब हिमालय पर्वत के समान धवल मेघों सहित शरद्काल आया ॥ १ ॥ २ अरविन्द द्वारा दीक्षा ग्रहणका निश्चय पृथ्वीपति राजा अरविन्द जब अपने परिजनों के साथ सभा भवन में विराजमान थे, तब उन्होंने हिमगिरिके समान एक शरद्कालीन मेघ देखा । उसे देख राजाने कहा – “ जल्दी खलियामिट्टी लाओ, देर मत करो। इसके अनुमानसे मैं एक जिनभवन ( का निर्माण ) कराऊँगा, जो संसार ( चक्र ) का नाश करेगा ।" राजाकी इस आज्ञाको शिरोधार्य कर अनेक दास-दासी हाथों में ( खलिया मिट्टी ) लेकर दौड़े। उसे लेकर ज्योंही नराधिप लिखने बैठा त्योंही आकाशसे मेघ लुप्त हो गया । उसी क्षण राजाको वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ और वह कहने लगा- "यह मेरे पुण्यसे ही प्रकट हुआ था । जो बन्धुजन करते हैं वही इसने किया है । इसने मुझ भोगासक्तको प्रतिबोधित किया है । एक मनोहर शरद्कालीन मेघ आकाशमें दिखाई दिया और सहज ही नष्ट हो गया । जिस प्रकार इसका नाश हुआ इसी प्रकार हमारा भी होता है। निश्चित ही इस संसार में रहना सुखकर नहीं ।" "जब तक मृत्युरूपी महायोद्धा द्वारा इस शरीरका नाश नहीं होता तब तक मैं वह तप करूँगा जिसके द्वारा शाश्वत् पद पर पहुँचा जाता है" ॥२॥ ३. अरविन्दके निश्चयकी प्रजाको सूचना उस नरश्रेष्ठने इस प्रकार सोच-विचारकर सब परिजनों को लावण्य, कान्ति, कला, और गुणोंसे युक्त, मनोहारी तथा अनुरक्त अन्तःपुर ( की स्त्रियों ) को, सामन्त, पुरोहित, कोतवाल, सेनापति और अपार सामान्य जनको, धनवानों, रामके समान वीर योद्धाओं समस्त सम्बन्धियों, मित्रों और राजकुमारोंको, भटों, ग्रामाध्यक्षों, कायस्थों तथा अन्तःपुरमें नियुक्त भंडारियों को, राजाकी सेवा करनेवाले अंगरक्षकोंको तथा दूसरे भी सभी लोगों को बुलाया । वे सब मनमें प्रसन्न होते हुए आए, प्रणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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