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________________ १२] पार्श्वनाथचरित [२,४किया और राजाके सामने बैठ गए। फिर उन्होंने उस सुलक्षणयुक्त, साहसी, श्रीसम्पन्न और नगरके स्वामीसे विनती की"हे देव, भट्टारक, भुवनसेवित, हमें आपने जिस कामसे बुलाया है उसे बताइए।" __उन वचनोंको सुन, प्रसन्न वदन हो उस राजाने कहा-"मेरे पुत्रका राज्याभिषेक कीजिए जिससे मैं हर्षपूर्वक तप ग्रहण करूँ" ॥३॥ अरविन्द द्वारा क्षमा-याचना "मेरी एक बात और आप एकाग्र चित्त होकर सुनिए। समस्त राजकार्य दोषयुक्त होता है। राजा मदमत्त होकर अकार्यमें प्रवृत्त होता है। राज्य करते हुए वह लोगोंकी त्रुटियोंको देखता है तथा मूर्ख, खल, दुष्ट और क्षुद्र पुरुषोंको ( अपने पास ) जमा करता है। राज्य करते हुए वह ( दूसरोंका ) परिहास से तिस्कार करता है तथा मित्रजनोंको निराश करता है। राज्य करते हुए वह शुद्ध मार्ग नहीं देखता एवं अयोग्य पुरुषोंकी संगति करता है। इस प्रकारसे राज्य चलानेवाले, अत्यन्त दोषपूर्ण संगति करनेवाले, भोगोपभोग (और अन्य ) सुखोंमें लालसा रखनेवाले नय और विनयसे रहित ( तथा) बालकके समान राजकाज चलानेवाले मैंने यदि जानते हुए या अनजाने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उस सबके लिए आप हमें क्षमा करें।" "नय या अनयसे जो बुराई मुझसे हुई हो उसकी कटुता जिससे दूर हो जाए उसके लिए मैं क्षमा-प्रार्थना कर रहा हूँ इससे मनकी आँस दूर होए" ॥४॥ अरविन्दको मन्त्रियोंका उपदेश उन वचनोंको सुनकर सब मन्त्रियोंने मीठे शब्दोंमें राजासे कहा-"तुम आज भी तरुण नवयुवक हो ( अतः) हाथी घोड़ोंसे युक्त इस राज्यका परिपालन करो। इस प्रकार राज्य करते हुए दीक्षा नहीं ली जाती है। युवावस्था बीतने पर वह सुखपूर्वक ग्रहण की जाती है। यौवन व्यतीत होनेपर अपने पुत्रको राज्य देकर फिर आप वनमें रहते हुए कार्यसिद्धि कीजिये। हे प्रभु, एक बात और है। आपके बिना हम सब अत्यन्त असमर्थ हो जाएंगे। शौर्यवृत्तिसे युक्त वीर तथा प्रजाके प्रधान आप ऐसे बोल रहे हैं मानो बड़ी विपत्ति आई हो। और क्या प्रव्रज्यासे सुख और मोक्षकी प्राप्ति होती है ? वह तो एक परोक्षकी बात है । मोक्षके बारेमें आचार्योंको सन्देह है । कोई कहता है वह ( मोक्ष ) समीप है और कोई कहता है वह दूर है । गृहस्थाश्रममें रहनेवालेको सुख प्राप्त होता है और गृहस्थाश्रमसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है। ऋषियों और मुनियोंने भी गृहस्थाश्रमकी सराहना की है और हे राजन् , इसे ही ( यथार्थमें ) परमार्थ कहा है।" "अपनी भुजाओं द्वारा अर्जित राज्यश्रीका त्यागकर आप तपोवनको जा रहे हैं। (सचमुच ही) इस पृथिवी तल पर आपको छोड़कर ( आपके समान ) न कोई दूसरा है और न कोई मूर्ख है ॥५॥ अरविन्दकी अपने निश्चयमें दृढ़ता उन वचनोंको सुनकर लम्बी भुजाओंवाले उस राजाने हँसकर कहा-“हे राजाके मन्त्रियो; क्या इस लोकमें जीवनधारण करनेवाला कोई ऐसा (प्राणी) है जो यमसे छुटकारा पा सके ? जिस प्रकार अग्नि वनमें वृक्ष, लकड़ी, घर, धन और तृणको भी नहीं छोड़ती उसी प्रकार यम भी बालक, युवा, विशिष्ट, दुष्ट, दुर्जन, सज्जन, अकुलीन, कुलीन, महानुभाव, मुनि, श्रोत्रिय, ब्राह्मण, वीतराग, दरिद्री, वृद्ध, कुमार, सुलक्षण, पारंगत, कुलशीलसे अलंकृत, स्थिरचित्त, धनाढ्य, नय और विनयसे विभूषित, विद्वान और गुणी किसीको भी नहीं छोड़ता; वह इन सबका नाश करता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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