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________________ १, २१] अनुवाद मरुभूतिको कमठका स्मरण तथा उससे मिलनेका निश्चय अभिमानसे कलंकित वह कमठ ब्राह्मण कालसर्पके समान पुरसे निकला । वह सिन्धु नदीके अस्थिर तटपर जाकर पञ्चाग्नि तपस्या करने लगा। यहाँ मरुभूतिका कुछ काल अत्यन्त सुखका अनुभव करते तथा रमण करते हुए व्यतीत हुआ। तब उसे अपने भाई कमठका स्मरण हुआ। वह मूञ्छित हो गया और उसके मुखकी कान्ति नष्ट हो गई। मू से उठकर वह वेदनापूर्ण और कारुण्य ग्रसित हुआ राजा अरविन्दके पदकमल-पीठके समीप पहुँचा । अश्रुजलके प्रवाहको गिराते उसने रुदन करते हुए ही प्रार्थना की-"दर्पसे उभट रिपुका दमन करनेवाले सर्व-सेवित देव ! मैंने अपने भाईको उस समय निकाल दिया। अब कृपाकर मुझे उसको घर ले आनेकी अनुमति दीजिए । हे देव, मुझे कारुण्य-भाव उत्पन्न हुआ है।" मरुभूति द्वारा कहे गये वचन सुनकर राजाने कहा-"तुम्हारा भाईके पास जाना उचित नहीं है. क्योंकि पहिले उसने तुम्हारे विरुद्ध कार्य किया है" ॥१९॥ राजाका मरुभूतिको उपदेश हे मरुभूति. मेरे वचनको निरर्थक मान तुम स्वयं उस व्यर्थ बान्धवको यहाँ मत लाना। यह मत समझना कि वह ने क्रोधको भूल गया होगा। वह आज भी उस स्त्री सम्बन्धी विरोधका स्मरण करता है। वह अज्ञानी तपोवनमें प्रविष्ट हो गया है, किन्तु उसने कोई परमार्थ नहीं देखा। उसे अभी तक संसारसे तरनेका कोई निमित्त नहीं मिला। वह तो ( अपनी वर्तमान ) अवस्था पूरी करने के लिए इस लोकमें आया है। यदि तू किसी प्रकार प्रमाद वश उससे मिलेगा, तो वह निश्चयसे तेरी देहका विनाश करेगा । हे मरुभूति, मैं तुझसे एक बात और कहता हूँ जो शास्त्रसे प्रमाणित तथा परम गुह्य है। युवतीजन, मूर्ख, अग्नि, सर्प, व्यसनासक्त मनुष्य, जल और अहंकारी खल, इन सातमें जो कोई इस लोकमें विश्वास रखता है वह लोगोंके हास्यका विषय होता है।" "हे मरुभूति, मैंने संक्षेपमें तुझे रहस्य बता दिया। अब, हे सज्जन, जो तुम्हें भावे सो करो। किन्तु मुझे तुम्हारा उसके पास जाना पसन्द नहीं है। यदि तुम किसी प्रकार उसके पास जाओगे, तो वह तुम्हारा वहीं पराभव करेगा" ॥२०॥ २१ मरुभूति द्वारा कमठकी खोज राजाके वचनोंकी परवाह न कर वह (मरुभूति) कमठके पास जानेके लिए निकला । समस्त पृथिवीपर घूमता हुआ, सब तपोवनोंमें पूछताछ करता हुआ, उद्यान, ग्राम और खनि प्रदेशोंमें भ्रमण करता हुआ, पर्वतोंको लाँघता हुआ वह अधीर मनसे पर्यटन करता रहा । सब पुर, नगर और गाँवोंमें उसने पूछताछ की और पृथिवीपर जहाँ-जहाँ तीर्थस्थान थे, वहाँ-वहाँ वह गया । इस प्रकार पूछते हुए जब उसने क्रम-क्रमसे गमन किया तब किसीने सिन्धु तटपर (कमठ को) बताया। भूखकी दाह और थकानकी परवाह न करते हुए मरुभूति मन और पवनके वेगसे उस स्थानपर पहुँचा। उसने दूरसे ही पंचाग्नि तपसे तपाई हुई देहवाले कमठको पहिचान लिया। उसने भावसे उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ की और प्रणाम करनेके लिए उसके चरणोंमें शिर झुकाया (और कहा)- "हे गुणोंके भण्डार, भट्टारक, गुणोंसे महान् , आप हमारे जेठे भाई हैं । आप हमारे माता, पिता और पितामह इन तीनोंके समान हैं । कामके कारण आप अकारण ही भ्रममें फंसे थे।" , हे महाबल, सब गुणोंके आगार, आप हमें क्षमा करो। उठो । मैंने चिरकालसे अर्जित अशुभ कर्मोंका फल भोगा। इसमें आपका कोई दोष नहीं है" ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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