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________________ पार्श्वनाथचरित [१, १६वचनमात्र नहीं है; किन्तु, हे मूर्ख; यह तो तुम अपने ही घरमें फूट उत्पन्न कर रही हो। यदि हमारे जैसा छोटा बालक कुछ क्रोध करे और स्नेहभावसे कुछ अपराध भी कर डाले, तो तुमको उसे ढाँकना ही योग्य है; नहीं तो लोकमें वह यों ही बढ़कर फैल जायेगा। कमठ तो मेरा जेठा भाई है और पिताके समान है । वह मेरी पत्नीको कैसे ग्रहण करेगा ?" । "हम दोनोंने परस्पर अत्यन्त दुर्लभ भ्रातृभाव पाकर स्नेहपूर्वक काल व्यतीत किया है । तुम्हें दोनों कुलोंमें अनहित करनेवाली तथा विद्वानों द्वारा निन्दित ऐसी बात नहीं करनी चाहिए ॥१५॥ कमठकी पत्नी द्वारा अपने कथनका समर्थन यह बात सुनकर उस ( कमठ-पत्नी ) ने बारम्बार हँसते हुए देवर से कहा- "हे नपुंसक वृत्तिवाले ! तुम बड़े भोले हो । तुम्हारे शरीरमें कोई स्वाभिमान ही नहीं है, जिसके कारण तुम स्त्री-पराभव सहते हो और मेरे कहे हुए वचनोंको झूठा मानते हो। जो शुरवीर पुरुष होते हैं वे किसी भी पराभवको सहन नहीं करते। तो फिर कोई अभिमानी मनुष्य अपनी पत्नीके साथ बैठे हुए विटको देख ले तो अपने हाथमें हथियार रखनेवाला वह शूरवीर ऐसे पराभवको कैसे सह सकता है ? किन्तु तुम ही एक ऐसे अदभुत जीव उत्पन्न हुए हो जिसमें थोड़ा भी पुरुषत्व नहीं है। अथवा यदि तुम्हें मुझमें विश्वास न हो और चित्तमें इस बातको असम्भव समझते हो, तो स्वयं देख लो कि वे दोनों एक स्थानमें बैठते हैं या नहीं। इसमें शीघ्रता करो।" “सब जनोंके सो जानेपर भोजनसे निवृत्त होकर विषय-महारसका लोभी कमठ प्रतिदिन रात्रिमें आता है, तेरी प्रियाके साथ रमण करता है और इसमें कोई बुराई नहीं मानता।" ॥१६॥ ___ मरुभूति द्वारा कमठके पापाचारका अवलोकन तथा राजासे न्यायकी माँग अपनी भावजके वचनानुसार वह धीरवीर मरुभूति शय्यागृहमें छिप गया। जब अर्ध-रात्रि व्यतीत हुई तब तुरन्त ही कमठ घरके भीतर आया और उस दुराचारिणीके साथ गढ़-चित्त हो क्रीडाकर रात्रिमें वहीं सो गया। रतिरासके सुखमें डूबकर क्रीडा करते हुए उन दोनोंको अपनी आँखोंसे देखकर मरुभूतिके मनमें क्रोध उत्पन्न हुआ। वह क्रोधसे जलता हुआ राजप्रासादमें पहुँचा। परिजनोंके साथ सभा भवनमें बैठे हुए राजाको उसने नमस्कार कर कहा-“हे महाराज, मैं अपने भाईके द्वारा पराभूत हआ हूँ। उसने मेरी पत्नीका अपहरण किया है । हे देव, मैं आपके सामने रोता-चिल्लाता हुआ आया हूँ। आपको छोड़कर मेरे लिए और दूसरी कौन शरण है ?" "हे नरेश्वर, पृथिवीके परमेश्वर, आज मैंने अपनी आँखोंसे उस अज्ञानी, महाखल, दुष्ट, मेरे जेठे भाई कमठको मेरे शय्यागृहमें रतिरसमें डूबा और कामासक्त देखा है ।" ॥१७॥ १८ कमठका देश-निर्वासन __ उन वचनोंको सुनकर मध्यस्थ एवं महानुभाव राजा अरविन्दने कहा-"वह कमठ तो निर्बुद्धि, अज्ञानी और क्षुद्र है, इसीलिए पहिले मैंने उसका परिहार किया ।” ऐसा कहकर उस राजाने दर्पसे उद्भट और भटोंमें निर्भीक अपने भृत्योंको भेजा और आज्ञा दी कि जाकर उस पापकर्मी कमठको बन्दी बनाओ और तुरन्त ही उसे दूसरा जन्म दिखलाओ ( मार डालो )। इन वचनोंको सुनते ही वे भट यमदूतके समान तुरन्त दौड़ पड़े। उन राजपुरुषोंने कमठको पुकारकर कहा कि क्या यह कलह करना तुम्हारे लिए योग्य था ? यदि तुझमें कोई पुरुषार्थ हो तो, रे खल, शीघ्र ही हथियार ग्रहण कर। फिर उन राजपुरुषोंने कमठको तिरस्कृतकर वैसे ही बाँध लिया, जैसे कि करिणीके प्रसंगका लोभी गज बाँधा जाता है। अपने ही घरमें अपने स्वजनों, बान्धवों और सुजनोंके देखते हुए वह (कमठ) गधेकी पीठपर चढ़ाया गया और जठे सकोरों द्वारा भषित किया जाकर लोगों द्वारा नगरसे निकाल दिया गया ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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