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________________ व्याकरण । ९९ कडवक का घत्ताः ; आठवीं संधि के ४ थे, बारहवीं संधि के ४ थे, चौदहवीं संधि के १८, २० तथा सोलहवीं संधि के १, १३ कवकों के घत्ते इस प्रकार के हैं । (x) वह जिसके पहिले पाद में १४, चौथे में १२, तीसरे में १२ तथा छठवें में १३ अतः पहिली पंक्ति में ३४ (१४+८+१२) तथा दूसरी पंक्ति में ३३ (१२+८+१३.) मात्राएं हैं। बारहवीं संधि के ६ वें कडवक का घत्ता इस प्रकार का है। (xi) वह जिसके पहिले पाद में १२, चौथे में १४ तथा तीसरे और छठवें में १४x२ मात्राएं हैं तद्नुसार प्रथम पंक्ति में ३४ (१२ +८+ १४ ) तथा द्वितीय पंक्ति में ३६ ( १४ + ८ + १४ ) मात्राएं हैं। आठवीं संधि के १७ वें कडवक का घत्ता इस वर्ग का है । (xii) वह जिसके पहिले पाद में १४, चौथे में १२ तथा तीसरे और चौथे में १३४२ मात्राएं हैं तदनुसार प्रथम पंक्ति में ३५ (१४ + ८ + १३ ) तथा द्वितीय पंक्ति में ३३ ( १२ + ८ + १३ ) मात्राएं हैं । बारहवीं संधि के २ रे कडवय का धत्ता इस प्रकार का है । इन संकीर्ण षट्पदियों में इनकी पद व्यवस्था, मात्रागण व्यवस्था आदि शुद्ध षट्पदियों के समसंख्यक मात्रावाले पादों के समान हैं । इनकी पंक्तियों की गठन भी शुद्ध षट्पदियों के जो सात प्रकार हैं उनकी पंक्तियों के ही समान हैं, अपवाद केवल तीन पंक्तिया हैं - दूसरे वर्गकी प्रथम पंक्ति, तीसरे वर्ग की दूसरी पंक्ति तथा ग्यारहवें वर्ग की प्रथम पंक्ति । इन पंक्तियों की गठन क्रमशः १०+८+१३, १२+८+१०, तथा १२+८+१४ प्रकार की है। इनमें से प्रथम कविदर्पण तथा प्रा. पै ( १.९९ ) के अनुसार घत्ता छंद की पंक्ति है । स्वयंभू ( स्व. छं. ८. २१ ) तथा हेमचन्द्र ( छ. शा. ४४अ ५ ) ने इसे ही छड्डनिका नाम दिया है तथा उसमें मात्रागगों की व्यवस्था ७ चतुर्मात्रागणों और एक त्रिमात्रागण से बताई है। जिस पंक्ति को गठन १२+८+ १० प्रकार से हुई है वह स्वयंभू छंद ( ६.१६९ ) की हरिणीव तथा छंदोनुशासन ( ४३११ ) की हरिणीकुल नामक द्विपदी के समान है तथा जिनकी गठन १२+८+१४ प्रकार की है वह स्वयंभू छंद (६.१८५) तथा छंदोनुशासन (४४ब ६ ) की भुजङ्ग विक्रान्त नामक द्विपदी के समान है । पा. च. की चौदहवीं संधि में घत्ते रूप से प्रयुक्त षट्पदियों में एक वैशिष्टय है जो अन्य संधियों में प्रयुक्त षट्पदियों में दिखाई नहीं देता । इस संधि की षट्पदियों के सभी पादों का अन्त भगण ( - ) में हुआ है, अपवाद केवल वें कडवक १० वें कड़वक की षट्पदी के तीसरे तथा ६ ठवें; १५ वें कडवक की षट्पदी के चौथे तथा पांचवें, तथा १६ की षट्पदी के सभी पाद हैं । पा. च. की व्याकरण शब्दों की वर्तनी - जिन दो प्राचीन प्रतियों पर से पा. च. का पाठ संशोधित किया गया है उन दोनों मैं ही शब्दों की वर्तनी बहुत कुछ लचीली पाई गई है। उन दोनों में यह लचीलापन सामान्य है । एत्थंतरि, तित्थु, दुघोट्ट, पोरिस, भणवइँ, विज्ज तथा हुअवह - जैसे अनेक शब्द हैं जो एक से अधिक प्रकार से लिखे हुए मिलतें हैं । हुभवह और पोरिस तो एक ही प्रति में भिन्न भिन्न स्थानों पर चार प्रकार से लिखे हुए हैं । इस अनियमितता का मुख्य कारण लिपिकारों का प्रमाद और उनका भाषा संबंधी अज्ञान हो सकता है । लिपिकारों के भाषाविषयक अल्पज्ञान के कारण भी शब्दों में परिवर्तन किया जाना संभव है । बोलचाल की अपभ्रंश तथा साहित्यिक अपभ्रंश एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं थी; फिर मी थोड़ा बहुत भेद तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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