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________________ १०० प्रस्तावना उनमें रहा ही होगा क्योंकि साहित्यिक भाषा में कुछ स्थायित्व होता ही है जब कि बोलचाल की भाषा बहता नीर है। यह परिवर्तन अविच्छिन्न होने के साथ ही साथ इतना सूक्ष्म होता है कि साधारणतः इस पर ध्यान ही नहीं जाता। शब्दों के अर्थ और गठन में परिवर्तन इस रूप से आ जता है कि उन पर लक्ष्य देना संभव नहीं रहता। इस कारण से लिपिकार अनजाने ही शब्द के मूल रूप के स्थान में उसका यत्किचित परिवर्तित रूप रख देता है। यदि वह लिपिकार भाषा में रुचि रखते वाला हुआ तो वह शब्द के मूल रूप को संभवतः जानबूझकर 'शुद्ध' करने या उसे अर्वाचीन रूप देने की दृष्टि से बदल दे सकता है । शब्दों का यह परिवर्तन ग्रन्थ की प्रत्येक बार लिपि किए जाने के साथ अवश्यंभावी है; अतः यदि ग्रंथ की चार छह बार प्रति की गई तो शब्दों का रूप मूल से बहुत दूर पड़ सकता है और इस स्थिति में उस मूल रूप को पहिचान कर खोज निकालना कठिन हो जाता है। भाषा संबंधी स्थानीय परंपराओं तथा अपभ्रंश भाषा की अस्थिर वर्णमाला के कारण भी शब्दों की वर्तनी स्थिर नहीं हो पाई । हस्व 'ए' और 'ओ' तथा अनुनासिक पदान्त अपभ्रंश भाषा की अपनी विशेषताएं हैं। अपभ्रंश और उसके पूर्व प्राकृतों में भी व्यंजनो को फलतः कुछ ध्वनियों को खो देने की प्रक्रिया तो अपनाई गई किंतु जो नई ध्वनियाँ इन भाषाओ में आई उन्हें व्यक्त करने के उपाय नहीं खोजे गए। ये नई ध्वनियां उनकी समीपतम ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए अपनाए गए चिह्नो द्वारा ही व्यक्त की जाती रहीं । हृस्व 'ए' को 'ए' या 'इ' के द्वारा तथा हस्व 'ओ' को 'ओ' या 'उ' के द्वारा लिपिबद्ध किया गया। इससे या तो उनकी मूल ध्वनि में वृद्धि हो जाती थी या उनकी विशेषता ही जाती रहती थी। लिपिकार स्वेच्छा से इन दो बुराइओं में से जब जिसे कम समझता उसे अपनाता। इससे 'जेम' 'जिम', एत्थंतरि इत्थंतरि तथा दुघुट्ट और दुघोट्ट आदि दो २ रूप एक ही शब्द के बन गए । अनुनासिक पदान्तों के विषय में भी यही कथन लागू होता है। वह या तो अनुस्वार द्वारा व्यक्त किया जाता था या सर्वथा छोड दिया जाता था इससे भवणइ- तथा भवणइँ दो रूप एक ही पद के हो गए। अपभ्रंश शब्दों की विभिन्न वर्तनी का एक कारण 'य' और 'व' श्रुतियां भी हैं । ये श्रुतियां विशेषकर 'व' श्रुति अपभ्रंश की ही विशेषता हैं । किंतु इनके उपयोग का क्षेत्र मर्यादित नहीं किया गया । लेखक और उससे अधिक लिपिकार अपनी इच्छा से इनका उपयोग किया करता था फलतः हुअवह के हुयवह, हुअअह और हुववह जैसे चार रूप बन पडे हैं । प्रतियों के पहले स्पष्ट किए गए लक्षणों के अतिरिक्त उनकी जो भाषा संबंधी विशेषताएं या व्यवस्थारूप से अपनाए गए लक्षण हैं वे इस प्रकार हैं (अ) हूस्व ए और ओ हे (४.४.१०) के अनुसार 'ए' और 'ओ' हष्व भी होते हैं किंतु किस स्थिति में वे हष्व हो जाते हैं इसका कहीं निर्देश नहीं है। न हि इसका निर्देश है कि कब किसे किस रूप से व्यक्त किया जाए। अपभ्रंश भाषा की प्रवृत्ति को देखते हुए संयुक्त व्यंजन के पूर्व के सभी 'ए' और 'ओ' हष्व होना चाहिए । इसका प्रमाण हमें इत्थंतरे, इक्क, दुघुट्ट आदि शब्दों में मिलता है जहाँ वे इ और उ से व्यक्त किए गए हैं। किंतु हृष्व 'ए' और 'ओ' को व्यक्त करने का पृथक् का - चिह्न न होने के कारण प्राचीन प्रतियों में उन्हें 'ए' और 'ओ' से ही व्यक्त किया गया है। पा. च. में जिन अन्य शब्दों, विभक्तियों और प्रत्ययों के 'ए' और 'ओ' रुष्व माने गए हैं वे निम्न हैं (अ ) जेम, तेम, केम, एम, एहु आदि शब्दों में........ए; (आ) अकारान्त पुल्लिंग, नपुंसकलिंग शब्दों की तृतीया एक वचन विभक्ति...एण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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