________________
प्रस्तावना
नृत्ययुक्त गीतके हिन्दोल नामक प्रकारका उल्लेख पृ. १९० में आता है । इसके अतिरिक्त चर्चरी गीत( गुजराती चाचर )का निर्देश भी पृ. १९१ में किया गया है ।
पुरुष भी सिर पर लम्बे बाल रखते थे (पृ. १२०)।
पृ. २८९ में लीलायट्ठी (लीलायष्टि ) शब्द आता है। इससे ज्ञात होता है कि घूमने जाते समय शौकके लिए हाथमें छड़ी रखनेका रिवाज़ काफ़ी प्राचीन है।
'ढोकते कालः' के बदले 'ढोकते लग्नम्' (पृ. २५) बोलना चाहिए-इस कथनसे इस समय भी प्रचलित उस शाब्दिक वहमका सूचन होता है जिसमें किसी शब्द-प्रयोगको अमांगलिक समझकर उसका व्यवहार नहीं किया जाता और उसके स्थानमें उसी भावका सूचक कोई सांकेतिक शब्द रखा जाता है । जैसे गुजरातीमें 'दुकान वधावो' (दुकान बन्द करो), • साचवणुं साचवो' (ताला लगादो), 'दिवाने राणो करो' (दिया बुझा दो) आदि ।
तीर्थंकरकी माता जब सगर्भा होती है तब गर्भकी रक्षाके लिए देवियाँ आकर भूतिरक्षा, मंत्रौषधि आदि पलंग पर बाँधती हैं ऐसा पृ. २५८ में लिखा है। इस समय भी चाकू रखना, काला धागा बाँधना, यंत्रयुक्त तावीज़ पहनना आदि प्रथा प्रचलित है । इस प्रथाकी प्राचीनता इससे सूचित होती है।
सार्थमें ऊँट, भैंसे, गधे आदिका उपयोग होता था (पृ. १६) तथा शीघ्र प्रवासके लिए ऊँटकी सवारी प्रसिद्ध थी (पृ. १३५)।
दाम्पत्यजीवनमें विविध प्रहेलिकाएँ (पहेलियाँ ) भी आनन्द-विनोदका साधन बनती थीं। पृ. ११८ तथा १२० । ६४ कलाओंमें इनका भी एक कलाके रूपमें उल्लेख आता है।
शकुन (पृ. १०१, १८७ ), मंत्रसाधना (पृ. ११९) तथा निमित्त (पृ. ५९, ६६, १८९ एवं २५८) ये तीनों बातें सामान्य लोकव्यवहारमें प्रचलित थीं।
घनरथ राजाकी दो रानियोंमेंसे पउमावती रानीका नाम कहावली (पृ. १४९) में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमें प्रियमती मिलता है। इसी प्रकार त्रिषष्टि में शान्तिस्वामीके पूर्वभवसे सम्बद्ध कपोत-ओवालकका प्रसंग मेघरथके भवमें आता है, जबकि कहावली तथा इसमें (पृ. १४८-९) मेघरथके पूर्ववर्ती वज्रायुधके भवमें आता है।
पृ. ७५ में तीर्थंकरके गर्भावतरणके पहले इन्द्र द्वारा गर्भशोधनकी बात आती है, जो नई मालूम होती है ।
७८३ पृष्ठ पर आरम्भ-समारम्भवाले गृहस्थको दिया गया दान निरर्थक एवं बन्धहेतुक है ऐसा कहकर उसका कोई अनर्थ न करे इस दृष्टिसे उसी पृष्ठ पर 'अनुकम्पा-दानका तीर्थंकरोंने कहीं भी निषेध नहीं किया' ऐसा सूचित किया है । इसमें ग्रन्थकारकी दीर्घदर्शिता प्रकट होती है । स्वयं तीर्थकर भी एक वर्ष तक आरम्भयुक्त गृहस्थको दान देते हैं । इसका निषेध तो किया ही नहीं जा सकता | अतः गृहस्थको दान न देनेके सूचक वाक्योंके आधार पर कोई निर्णय कर लेना अनुचित है । अनुकम्पा और मानम-प्रेम ही दानको आधारशिला है।
बीस स्थानकोंमेंसे किसी एक अथवा एकाधिककी आसेवनासे तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध होता है ऐसा सामान्यतः समझा जाता है । यहाँ पर भी उसका निर्देश है, फिर भी एक स्थान पर (पृ. २५६) सोलह स्थानकोंमेंसे अन्यतरकी आसेवनासे तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध होता है ऐसा भी लिखा है।
भगीरथने नागबलि एवं नागपूजाका प्रारम्भ किया तथा मृत व्यक्तिकी अस्थियोंके विसर्जनकी प्रथा चलाई पृ. ७१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org