________________
चउप्पन्नमहापुरिसचरिय
ब्रह्मदत्तके विवाहके लिए कन्याको वरपक्षके नगरमें लाया गया है । (पृ. २२०) इस परसे सूचित होता है कि कहींकहीं कन्याको वर पक्षके गाँवमें लाकर उसका विवाह करनेकी प्रथा रही होगी। वस्तुतः यह प्रथा अब भी कई जातियोंमें प्रचलित है।
योग्य पतिकी प्राप्तिके लिए कामदेवका पूजन (पृ. ११०) तथा यक्षकी आराधना (पृ. २३२) करनेकी प्रणालिका थी ऐसा यहाँ आये हुए वर्णनोंसे ज्ञात होता है।
पृ. ३१९ में नगरके द्वारपाल देवताकी यात्राके त्यौहारका उल्लेख आता है।
भारतके प्राचीन कथासाहित्यमें कई कथानायक अनेक स्त्रियोंके साथ विवाह करते दिखाये गये हैं। इसी प्रकार यहाँ भी कई कथाओंमें देखा जाता है। ये कथाएँ उस कालमें लिखी गई थीं जब बहु-पत्नीत्व सामाजिक गौरव एवं पुण्यका सुफल माना जाता था। आज इस विचारधारामें परिवर्तन हो गया है।
'अण्णया य वरधणुणो दिवसो त्ति पयप्पियं भोज, भुंजंति बंभणादिणो' (पृ. २३७) तथा 'तुमं बंभणो णिमंतिओ महयालदिवसेसु पुण्णभदेण सेट्ठिणा (पृ. ११३)- इन अवतरणोंसे श्राद्धके दिन ब्राह्मणभोजकी प्रथाकी व्यापकता जानी जा सकती है।
'तत्थ य हट्टमझदेसम्मि चच्चरे कहएणं कहागयं कहतेणं पढियं गाहाजयलं' (पृ. ११३)-इस उद्धरणसे चौक-चौराहों पर रामायण आदिकी कथा कहनेकी जो प्रथा प्राचीन हजारों वर्षों से चली आ रही थी वह ग्रन्थकारके समयमें भी विद्यमान थी और आज भी है।
इस ग्रन्थमें यद्यपि खाद्य पदार्थोंके अनेक नाम उपलब्ध नहीं होते, फिर भी कूर, दाली, सालणय, पक्कण्ण और तिम्मण इतने नाम तो मिलते हैं (पृ. ३२५)।
पृ. २२८, गाथा १२८-३१ में कापालिकका वर्णन आता है। कापालिक साधु मानव-मुण्डोंकी माला धारण करते थे, भिन्न-भिन्न प्रकारके चीथड़ोंसे उनकी छाती बँकी रहती थी जिससे वे भयंकर मालूम होते थे, मस्तक पर विविध पक्षियोंके पंख रखते थे, हाथसे वे डमरुवादन करते थे और मदिरापानसे उनकी आंखें नशीली लगती थीं। कापालिकोका ऐसा भीमरूप प्राचीन कथासाहित्यमें प्रायः उपलब्ध होता है।
आमलखेड्डु नामक बालक्रीडाका तथा खेलमें विजित बालकको पराजित बालक अपनी पीठ पर लेकर घूमे इस प्रकारके खेलका निर्देश पृ. २७१-२ पर आता है।
सम्पन्न युवक लाखो रुपयोंकी होड़ लगाकर मुर्गाको लड़ाते थे-इसका उल्लेख पृ. २२९ के कथाप्रसंग परसे जाना जा सकता है।
पुष्पमालाके गुच्छोंमें हंस, मृग, मयूर, सारस, कोकिल आदिकी आकृतियोंका गुम्फन किया जाता था- यह बात पृ. २११ को देखनेसे ज्ञात होती है ।
__ पृ. २० में आये हुए वर्णनसे राजकुमारीकी चित्रकलाकी निपुणता विदित होती है । पृ. ७६ में रानीकी दिनचर्यामें शुक-सारिकाकी सम्भालके अतिरिक्त चित्रकलाका भी उल्लेख है। इसी प्रकार पृ. १५५ में राजकुमारीकी चित्रकला एवं संगीतकी उपासनाका निर्देश है । यह बात उस समयके संभ्रान्त कुलकी महिलाओंकी रुचिकी सूचक है। स्त्रीयोंकी ६४ कलाओंमें इनकी परिगणना की गई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org