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चउप्पन्नमहापुरिसचरिय
ग्रन्थकार तथा उनका समय
ग्रन्थकारने अपनी पहचान तीन नामोंसे दी है : शीलांक (पृ. १७) अथवा सीलंक (पृ. २६९) विमलमति (पृ. १७) तथा सीलायरिय-शीलाचार्य ( ग्रन्थकी समाप्तिमें पृ. ३३५ ) । ग्रन्थके अन्तमें ग्रन्थकारकी संक्षिप्त प्रशस्ति एवं ग्रन्थकी समाप्तिसूचक पाँच गाथाएँ हैं, जो इस प्रकार हैं
चउप्प(प)ण्णमहापुरिसाण एथ चरियं समप्पए एयं । सुयदेवयाए पयकमलकंतिसोहाणुहावेणं ॥ १ ॥ आसि जसुजल जोण्हाधवलियनेव्वुयकुलंबराभोओ। तुहिणकिरणो व्व सूरी इहई सिरिमाणदेवो त्ति ॥२॥ सीसेण तस्स रइयं सीलायरिएण पायडफुडथं । सयलजणबोहणत्थं पाययभासाए सुपसिद्धं ॥ ३ ॥ जं एत्थ लक्खण-ऽक्खर-छंदक्खलियं पमायओ मज्झ । लेहअवसउ व्व भवे तं खमियन्वं बुयणेण ॥ ४॥
इय महापुरिसचरियं समत्तं । चउपण्णमहापुरिसाण कित्तणं जो सुणेइ एगग्गो । सो पावइ मुत्तिसुहं बिउलं नत्थेत्थ संदेहो ॥ ५ ॥
अर्थात् यह चौवन महापुरुषोंका चरित्र श्रुतदेवताके चरणकमलकी कान्तिको शोभाके प्रभावसे-सरस्वतौकी कृपासे यहाँ समाप्त होता है ॥ १॥ यशको उज्ज्वल ज्योत्स्नासे निर्वृतिकुलरूपी आकाशके विस्तारको धवलित करनेवाले चन्द्रके समान मानदेवसूरि थे ॥ २ ॥ उनके शिष्य शीलाचार्यने सब लोगोंके बोधके लिए प्रकट एवं स्पष्ट अर्थवाला [अतएव] सुप्रसिद्ध यह-- चउपन्न० म० च०-प्राकृतभाषामें रचा है॥३॥ इसमें लक्षण, अक्षर एवं छन्दके बारेमें मेरे अथवा लेखकके प्रमादवश कोई क्षति हुई हो तो विद्वान् उसे क्षमा करें ॥ ४ ॥ जो कोई चौवन महापुरुषोंका चरित एकाग्र होकर सुनता है उसे मुक्तिका विपुल सुख प्राप्त होता है इसमें सन्देह नहीं ॥ ५ ॥
__प्रस्तुत सम्पादनमें जिन दो प्रतियोंका आधार लिया गया है उनमें से 'जे' संज्ञक प्रतिमें उपर्युक्त पाँच गाथाओंमेंसे प्रारम्भकी तीन गाथाओंके पश्चात् ग्रन्थसमाप्ति एवं लेखककी पुष्पिका उपलब्ध होती है, अर्थात् अन्तिम दो गाथाएँ 'जे' प्रतिमें नहीं हैं। जिनमें ग्रन्थकार तथा उनके कुल एवं गुरुका निर्देश है वे दूसरी और तीसरी गाथाएँ 'सू' संज्ञक प्रतिमें नहीं है; अर्थात् 'जे' प्रतिमें ही ये दो गाथाएँ आती हैं। यहाँ ग्रन्थकारकी परिचायिका दूसरी-तीसरी गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं ऐसा.माननेका कोई कारण नहीं है । साथ ही, 'सू' संज्ञक प्रतिके लेखकने ये दो गाथाएँ जानबूझकर नहीं लिखी होंगी ऐसा माननेका भी कोई कारण नहीं है। कभी-कभी गच्छ आदिके दुराग्रहके कारण लेखकके प्रशस्ति-पाठमें छेड़छाड़ करनेका, उसे सुधारनेका अथवा न लिखनेका बनता होगा, और वैसा हुआ भी है; तथापि इन दो गाथाओंमें ऐसी कोई बात नहीं है जिसे लिखकर या न लिखकर कोई भी व्यक्ति अपने गच्छाग्रह या व्यक्तिद्वेषका पोषण कर सके । 'सू' प्रतिके लेखन-समय, लेखन-स्थान
१ ऐसी अनधिकार छेड़छाड़को रोकनेके लिए ही विक्रमकी १७ वीं शतीके जैन विद्वान् श्री समयसुन्दरजीने तथा ब्राह्मण विद्वान् श्री गोवर्धनजीने अपनी-अपनी कृतियोंके अन्तमें स्पष्ट सूचना दी है। श्री समयसुन्दर वृत्तरत्नाकर वृत्तिके अंतमें कहते हैं
यः कोऽपि मत्सरी मूढः प्रशस्ति न लिखिष्यति । स लोके लप्स्यते निन्दा कुणिर्भावी परत्र च ॥ अर्थात् जो मात्सर्ययुक्त मूढ़ व्यक्ति मेरी प्रशस्ति नहीं लिखेगा वह इस लोकमें निन्दापात्र और परलोकमें कोई भी क्रिया करनेमें असमर्थ हाथवाला होगा । इसी प्रकार गोवर्धनकृत पद्मकोशके अन्तमें एक श्लोक है कि
अथास्मिन् पद्मकोशाख्ये योऽभिधानकरः परः । स जारजातको ज्ञेयः यदि त्रिस्कन्धपारगः ॥ अर्थात् इस पद्मकोका नामक ग्रन्थमें यदि कोई अपना नाम घुसेड़ देगा तो वह भले ही त्रिस्कन्धका पारगामी हो, तो भी उसे जारजात ही समझना चाहिए ।
ये दोनों हस्तलिखित ग्रन्थ राजस्थान के प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान (जोधपुर) के अन्थसंग्रहमें संगृहीत है और इनका क्रमांक १९७९ एवं ४०९ है।
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