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उत्पन्नमहापुरिसचरिय
शीलांकाचार्यने प्रस्तुत ग्रन्थकी रचना अपनी नैसर्गिक प्रतिभाके बलसे की है। भाषाका प्रवाह अस्खलित गति है । ग्रन्थके अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः ग्रन्थकी रचनाके पश्चात् लेखकको दूसरी बार उसे पढकर संशोधित करनेका अवसर नहीं मिला है। उपर्युक्त दो प्रतियोंके पाठभेदों को देखने पर ऐसी भी कल्पना होती है कि प्रस्तुत ग्रन्थ संशोधन --परिवर्धन हुआ है और वह शायद स्वयं लेखककृत भी हो; तथापि समस्त ग्रन्थ अथवा ग्रन्थका कोई पूरा एक विभाग समग्रतया देखा गया हो ऐसा नहीं लगता । यह बात अधोलिखित अवतरणोंसे अवगत हो सकेगी
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१. नाटकों में विदूषककी भाषा प्राकृत होती है । इस प्रणालिकाका अवलम्बन लेखकने भी 'विबुधानन्दनाटक' में किया है । केवल एक ही स्थान पर विदूषक के कथन में 'जयउ जयउ कुमारो' लिखनेके बदले 'जयतु जयतु कुमारः' (पृ. २२) मिलता है ।
२. पृ. ७९ में गंगा पडिसोएणं' लिखा है । 'तरियव्वा' का अर्थ ऊपर से लगाना पड़ता है ।
३. द्विष्ट और विजयके समक्ष विजयाचार्य अपनी आत्मकथा कहते हैं । उस कथानकमें (पृ. १०६-११४) विजयाचार्य अपने आपको लक्षित करके 'मया चितियं' (पृ. १०७ पंक्ति - १३ ), 'तओ अहं' (पृ. ११३. पं. ६,१४ ) इत्यादि प्रयोग करते है और वे संगत प्रतीत होते हैं; परन्तु उसी कथामें अनेक स्थानों पर 'चन्दउत्त', 'कुमार', 'तेण वि' जैसे प्रयोग भी आते हैं, जिससे 'कथाका कथयिता ही कथानायक है' यह बात समझने में भ्रम पैदा हो सकता है। इसके अतिरिक्त इस कथाके प्रारम्भमें पूर्वविदेहक्षेत्र लिखा है (पृ. १०६ ) परंतु उसके स्थानमें भरतक्षेत्र होना चाहिए । यह समग्र कथा कहावलीमें भद्रेश्वरसूरिने प्रायः अक्षरशः ली है । उसमें पूर्वविदेहक्षेत्रके स्थान पर भरतक्षेत्र लिखा है ।
४. पृ. १६७ पर आई हुई २८वीं गाथामें 'पडिभणई' शब्द आता है । २९वीं गाथामें यह वाक्य चालू रहता है, फिर भी वहाँ 'इमं भणइ'का प्रयोग किया है, जो न किया जाता तो भी चल सकता था ।
५. अरिष्टनेमि-कृष्ण-बलदेवचरितमें जराकुमार अपनी पहचानके लिए 'हलि-केसवाणमेक्कोयरो' (पृ. २०१ ) कहकर अपनेको उनका सहोदर कहता है; परन्तु हली-बलदेव रोहिणीपुत्र है तो केशव कृष्ण देवकीपुत्र है, यह बात पृ. १८३ में आती है । पृ. २०४, गा. २६८ में सिद्धार्थदेव बलदेवके आगे छः महाव्रतका उल्लेख करता है । उनके स्थान में चार कहे होते तो अधिक संगत होता, क्योंकि उस समय चातुर्यामकी ही परम्परा थी ।
शब्द लिखा है ।
६. पृ. २१२ में 'दासा दसण्णए आसी' कहकर पृ. २१४ में 'दसण' देशके स्थानपर 'सुदंसण' ७. त्रिपृष्ठवासुदेवके चरितके अन्तमें 'अओ उड्ढे वज्रमाणतित्थयरचरियाहिगारे कहिस्सामो' (पृ. १०३ ) ऐसा लिखकर वर्धमानस्वामी चरितमें उनके पूर्ववर्ती देवभव ( अर्थात् एक ही भव ) के अतिरिक्त त्रिपृष्ठ और वर्धमानस्वामी इन दो भवोंके बीच के अन्य जन्मोंकी कथा नहीं लिखी ।
९. पृ. २३६ पर आई हुई गाथा २०२ के पश्चात् पुष्पवती कहती है कि 'अण्णं च सुमरिज्जउ मुणिवरभणियं', परन्तु मुनिकथनकी जानकारी पुष्पवतीको है ऐसा सूचन कहीं भी ग्रन्थकारने नहीं किया; अतः एकाध स्थान में अध्याहारसे भी सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है ।
१०. पृ. १६ एवं १८ में महाबल राजाके मंत्रीका नाम 'विमलमति' लिखा है, किन्तु पुनः पृ. १८ में ही उस मंत्रीका निर्देश ‘सुबुद्धि' के नामसे किया है । इसी प्रकार पृ. १५९-६० में जिसका नाम 'रयणपभा' आता है उसीको पृ. १६१६२ में 'अनंगमती' कहा । पृ. २५४ में 'कणयरह' और पृ. २५५ में 'कणयाह' नाम आते हैं, परन्तु ये दोनों एक ही व्यक्तिके नाम हैं ।
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