________________
प्रस्तावना
वरुणवर्मकथानक (पृ. ५७ से ६२), विजयाचार्यकथानक (पृ. १०६ से ११४) और मुनिचन्द्रकथानक (पृ. ११७ से १२७) इन तीन अवान्तर कथाओंकी तथा ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिचरित (पृ. २०९ से २४४) के अधिकांश भागकी रचना शैली आत्मकथात्मक है।
आज तक उपलब्ध चरितग्रन्थोंमेंसे यदि किसी भी ग्रन्थमें नाटकके रूपमें किसी अवान्तर कथाकी रचना दृष्टिगोचर होती हो तो वह केवल प्रस्तुत ग्रन्थमें ही है' । देवचंद्रसूरिरचित चन्द्रप्रभचरितमें आनेवाली वज्रायुधकथाका उत्तर भागै यद्यपि नाटककी शैलीमें उपलब्ध होता है, तथापि उसे प्रस्तुत ग्रन्थका अनुसरण कहा जा सकता है ।
विद्याधरी मायाके प्रभावसे निमेषमात्रमें सारे महल और परिजनोंका अदृश्य हो जाना (पृ. २३७) तथा वेतालिनी विद्या द्वारा कृत्रिम मृत्युका होना (पृ. १४७)-ऐसे प्रसंग अरेबियन नाइटस जैसे लगते हैं। हमारे प्रायः सभी प्राचीन कथा ग्रन्थोंमें ऐसे वर्णन आते हैं। देवागमके प्रसंग, नगरमेंसे प्रतिदिन एक मनुष्यका भक्षण करनेवाले राक्षसके प्रसंग तथा अन्य दैवीप्रसंगोमेंसे कोइ न कोइ प्रसंग अल्पाधिक मात्रामें सर्वत्र उपलब्ध होते हैं । अतएव ऐसे वर्णनोंका समावेश तत्काली कथा-रूढ़िके अन्तर्गत ही करना चाहिए।
चौलुक्य नरेश जयसिंहदेव एवं कुमारपालके समकालीन आचार्य हेमचन्द्रके गुरु श्री देवचन्द्राचार्य द्वारा रचित ( वि. सं. ११४६ ) मूलशुद्धिप्रकरणटीका (अपर नाम स्थानकप्रकरण टीका )के चौथे एवं छठे स्थानको आनेवाले चन्दनाकथानक तथा ब्रह्मदत्त कथानकको देखनेसे ज्ञात होता है कि इनमें आनेवाली अधिकांश गाथाएँ तथा कतिपय छोटे-बड़े गद्य सन्दर्भ शीलांकाचार्यके चउप्पन्नमहापुरिसचरियमें आनेवाले 'वसुमइसंविहाणय' (पृ. २८९-९२) तथा बंभयत्तचक्कवटिचरिय (पृ. २१०-४४ ) के साथ अक्षरशः मिलते हैं । अतः प्रस्तुत ग्रन्थमें से ही वे सन्दर्भ वहाँ अवतारित प्रतीत होते हैं। इन कथाओंके अवशिष्ट भागोंमेंसे भी कितना ही भाग अल्पाधिक शाब्दिक परिवर्तनके साथ चउप्पन्नमहापुरिसचरियका ही ज्ञात होता है । इन स्थानोंकी विस्तारसे तुलना करना यहाँ शक्य नहीं है । आगामी कुछ वर्षोंमें सिंघी जैन ग्रन्थमालामें उक्त मूलशुद्धिप्रकरणटीका प्रकाशित होनेवाली है। उसमेंसे विशेष जिज्ञासु यह तुलना जान सकेगा ।
वि. सं. ११६० में रचित श्रीवर्धमानाचार्यकृत प्राकृत ऋषभदेवचरित( अप्रकाशित )के प्रारम्भमें आनेवाली एक गाथाको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी रचनामें भी इस चप्पन्नमहापुरिसचरियका प्रभाव होगा ही। वह गाथा इस प्रकार है
महमुहनिज्झरझरियं चरियं पाएण रिसहनाहस्स । कन्नंजलीहिं पिज्जउ वियसियवयणाए परिसाए ॥ ४५ ॥ ऋ. च. इसकी तुलना करो
महमुहकलसपलोटें उत्तिमपुरिसाण चरियसुहसलिलं ।
कण्णंजलीहिं पिज्जउ वियसियवयणाए परिसाए ॥ पृ. ४. गा. ५३ ॥ च. म. च. उपर्युक्त दो उदाहरण तथा पूर्वोक्त कहावलीके स्थानोंका अवलोकन करनेपर ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोंके लिए प्रस्तुत ग्रंथ अभ्यसनीय और उपादेय हो चुका था । इस दृष्टि से इतर उत्तरवर्ती ग्रन्थों से भी प्रस्तुत ग्रन्थके प्रभावके प्रमागोंकी उपलब्धि असम्भव नहीं है।
१ देखो प्रस्तुत प्रन्थमें 'विबुधानन्दनाटक' पृ. १७ से २७ । यह नाटक दुःखान्त है, इसलिए नाटक साहित्यमें इसका सूचक वैशिष्टय है।
२ देखो मुनि श्री चरणविजयजी द्वारा सम्पादित और आत्मानन्द जैन सभा, अंबालासे प्रकाशित 'चन्द्रप्रभचरित' पृ. ६० से ७६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org