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चउप्पन्नमहापुरिसच रिय
तमण्णासुं सवित्थरकहासुमवगन्तव्यं ति' (पृ. २०९) ऐसा लिखकर तथा 'पउमचरिय'का निर्देश करके (पृ. १७६ ) किया है । इसके अलावा गजसुकुमाल (पृ. २०५), जमाली (पृ. ३३१) एवं कालशौकरिक (पृ. ३१७ तथा ३२०) इन तीनका केवल नामनिर्देश ही किया गया है, जिससे फलित होता है कि ग्रन्थकारके पहलेकी रचनाओंमें ये पात्र तथा प्रसंग सुज्ञात होनेसे उनके विषयमें विशेष विस्तार करनेकी आवश्यकता ग्रन्थकारको प्रतीत न हुई हो। इस लाघवके पीछे ग्रन्थकारकी दृष्टि चाहे जो रही हो, इससे एक बात तो स्पष्टरूपसे प्रतिफलित होती है और वह यह कि उनके सम्मुख पूर्व-स्रोतके रूपमें एकाधिक प्राक्कालीन रचनाएँ रही होंगी। रचना और उसका प्रभाव
इस ग्रन्थमें महापुरुषके क्रमांक १-२ ऋषभस्वामि-भरतचक्रवर्ति चरित, ३०-३१ शान्तिस्वामिचरित, ४१ मल्लिस्वा मिचरित और ५३ पार्श्वस्वामिचरित-इन चार चरित्रोंका विस्तार प्रायः कथानायकके पूर्वभवोंके वर्णनसे हुआ है । ७ सुमति स्वामिचरित पूर्वभवकी कथा तथा शुभाशुभकर्मविपाकके विस्तृत उपदेशके कारण कुछ विस्तृत हुआ है । ४ सगरचक्रवर्तिचरित, २९ सनत्कुमारचक्रवर्तिचरित, ३८ सुभूमचक्रवर्तिचरित, ४९-५०-५१ अरिष्टनेमि-कृष्णवासुदेव-बलदेव बलदेवचरित, ५२ ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिचरित तथा ५४ वर्धमानस्वामिचरित-ये छ: चरित्र कथानायकोंके विविध प्रसंगोंके द्योतक कहे जा सकते हैं। ३अजितस्वामिचरित, १७-१८ द्विपृष्ठवासुदेव-विजयबलदेवचरित, २०-२१ स्वयंभूवासुदेव-भद्रबलदेवचरित, ३४-३५ अरस्वामिचरित-ये चार चरित्र अवान्तर कथाके कारण कुछ विस्तृत बन गये हैं। १४-१५ त्रिपृष्ठवासुदेव-अचलबलदेवचरित भी सिंहमारणके प्रसंगके अतिरिक्त मुख्य रूपसे पूर्वभवके वृत्तान्तके कारण ही कुछ बडा हो गया है । ५ सम्भवस्वामिचरित, ८ पाप्रभस्वामिचरित और १० चन्द्रप्रभस्वामिचरित-इन तीन चरितोमेंसे क्रमश: कर्मबन्ध, देव-नरकगति तथा नरकस्थान विषयक उपदेशको बाद किया जाय तो ये केवल चरितकी एक तालिका जैसे ज्ञात होते हैं।
उपर्युक्त १९ चरितोंके अतिरिक्त अवशिष्ट २१ चरित तो कथाकी अतिसंक्षिप्त नोट जैसे मालूम होते हैं । इन २१ चरितोंमेंसे कोई एक या सवा पृष्टमें समाप्त हो जाता है तो कोई आधे-पौने पृष्ठमें या फिर पाँचसात पंक्तियोंमें ही पूर्ण हो जाता है।
१ यहां अन्य कथाओंसे अभिप्रेत विमलसूरि द्वारा सर्वप्रथम रचित हरिवंश तथा उनके उत्तरकालीन पुनाट संघीय आचार्य श्री जिनसेनकृत हरिवंश इन दोनोंके अतिरिक्त शीलांकाचायसे पहलेके स्वतंत्र कथाग्रन्थ अथवा अन्यविषयकग्रन्थान्तर्गत कथाएँ हैं । पउमचरियके कर्ता विमलसूरिका हरिवंश आज उपलब्ध नहीं है, परन्तु उसका कुवलयमालाकार उद्द्योतनसूरि (दाक्षिण्यचिह्न ने जो उल्लेख किया है वह इस प्रकार है
बुहयणसहस्सदइयं हरिवसुप्पत्तिकारय पढमं । वंदामि बंदियं पि हु हरिवंसं चेव विमलपयं ॥ अर्थात् हजारों बुधजनोंको प्रिय, प्रथम हरिवंशोत्पत्तिकारक= हरिवंशनामकग्रन्थके रचयिता और हरिवंशकी भांति विमल पद-विमलांक अर्थात् विमलसूरिको वंदित ( इतः पूर्व एक गाथा छोड कर) होने पर भी (यहाँ पुनः) वन्दन करता हूँ। इस परसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कुवलयमालाकार उद्योतनसूरि (वि. सं. ८३५)की दृष्टिमें हरिवंश नामक कृतिके प्रथम रचयिता विमलसूरि हैं । इस गाथाके अपने पहले किए हुए अर्थमें संशोधन करके श्रद्धेय श्री नाथूरामजी प्रेमी लिखते हैं कि “मैं हजारो बुधजनोंके प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक, प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंशकी वन्दना करता हूँ। इसमें जो विशेषण दिये है वे हरिवंश और विमलपद (विमलमूरिके चरण अथवा विमल है पद जिसके ऐसा ग्रंथ) दोनों पर घटित होते हैं। विमलसूरिका यह हरिवंश अभीतक अप्राप्य है। इसके मिलनेपर जिनसेनके हरिवंशका मूल क्या है, इसपर बहुत कुछ प्रकाश पड़नेकी संभावना है। आश्चर्य नहीं जो पद्मचरितके समान यह भी विमलसूरिके प्राकृत हरिवंशकी छाया लेकर ही बनाया गया हो” ('जैनसाहित्य और इतिहास' द्वितीय संस्करण पृ. ११३-१४)।
कुवलयमालाके संपादक डॉ. ए. एन. उपाध्येजीने इस गाथाके मूलमें “हरिवरिसं चेय" ऐसा पाठ स्वीकृत किया है, और उसके स्थानमें टिप्पणमें “ हरिवंसं चेव" पाटयंतर रूपसे दिया है। मेरा नम्र मत है कि “हरिवंसं चेव" पाठ मूलमें ग्राह्य होना चाहिए।
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