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________________ १.१४७] मात्रावृत्तम् [७१ १४६. कुंडलिया छंद : हे बुधजन, पहले दोहा के लक्षण को पढ़कर, फिर काव्य (रोला) छंद दो, उसे उल्लाला से संयुक्त कर अर्थात् दोहा के चरण की पुनरुक्ति कर कुंडलिया समझो । उल्लाला से उक्त तथा यमक से शुद्ध कुंडलिया श्रेष्ठ समझा जाता है। इसमें १४४ मात्रा होती हैं, सुकवि इसे दृढबंध कहते हैं। जिसमें १४४ मात्रा शरीर की शोभा हैं, इस प्रकार वह कुंडलिया छंद जानो, जहाँ पहले दोहा पढ़ा जाता है। टिप्पणी-कव्वह-काव्यस्य; 'ह' संबंध ए० व० की विभक्ति । बुहअण-2 बुधजनाः; संबोधन ब. व. प्रातिपदिक रूप ।। उल्लाले-उल्लालेन, 'ए' करण ए० व० विभक्ति । सलहिज्जइ-< श्लाघ्यते, कर्मवाच्य रूप । पढिअइ-2 पठ्यते, कर्मवाच्य रूप । जहा, ढाल्ला मारिअ ढिल्लि महँ मुच्छिअ मेच्छसरीर । पुर जज्जल्ला मंतिवर चलिअ वीर हम्मीर ॥ चलिअ वीर हम्मीर पाअभर मेइणि कंपइ । दिग मग णह अंधार धूलि सूरह रह झंपइ ॥ दिग मग णह अंधार आण खुरसाणक आल्ला । दरमरि दमसि विपक्ख मारु, दिल्ली महँ ढाल्ला ॥१४७॥ [कुंडलिया) १४७. उदाहरण दिल्ली में (जाकर) वीर हमीर ने रणदुंदुभि (युद्ध का ढोल) बजाया, जिसे सुनकर म्लेच्छों के शरीर मूच्छित हो गये । जज्जल मन्त्रिवर को आगे (कर) वीर हम्मीर विजय के लिये चला । उसके चलने पर (सेना के) पैर के बोझ से पृथ्वी काँपने लगी (काँपती है), दिशाओं के मार्ग में, आकाश में अँधेरा हो गया, धूल ने सूर्य के रथ को ढंक दिया। दिशाओं में, आकाश में अँधेरा हो गया तथा खुरासान देश के ओल्ला लोग (पकड़ कर) ले आये गये । हे हम्मीर, तुम विपक्ष का दलमल कर दमन करते हो; तुम्हारा ढोल दिल्ली में बजाया गया । टिप्पणी-ढाल्ला-इसका न० भा० आ० रूप 'ढोल' है, जो अन्य प्राचीन हिन्दी तथा राज० कृतियों में भी मिलता है, दे० 'बज्या दमामा ढोल' (ढोला मारू रा गोहा ३५३) । यहाँ एक ओर "ल' का द्वित्व तथा 'अ' का दीर्धीकरण अवहट्ट की छंदोनिर्वाह प्रवृत्ति के कारण है, किन्तु 'ल्ल' केवल ओज गुण लाने के लिये प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है । मारिअ-कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त का भूतकालिक क्रिया के लिए प्रयोग /मार+इअ । ढिल्लि महँ-'महँ' अधिकरण का परसर्ग (=दिल्ली में) । मुच्छिअ मेच्छसरीस्-< मूच्छितानि म्लेच्छशरीराणि, कर्ताकारक ब० व० में प्रातिपदिक का प्रयोग । चलिअ-कर्मवाच्य-भाववाच्य भूतकालिक कृदन्त का भूतकालिक क्रिया के लिये प्रयोग । पाअभर-< पादभरेण; करण ए० व० में प्रातिपदिक का प्रयोग । दिग मग णह-< दिङ्मार्गे नभसि, अधिकरण ए० व० रूप (शून्य विभक्ति) । अंधार-< अन्धकारः > अंधआरो > अंधारउ > अंधार-अंधार; तु० हि० अँधेरा, रा० अँधेरो (उ० अंदेरो) । १४७. महँ-B. महि, C. K. मह, N. महँ । मेच्छ-B. मछ। पुर जज्जल्ला-B. किअ जज्जल । मंतिवर-0. मल्लवर । चलिअC. चल्लिअ, 0. वलिअ । हम्मीर-C. हमीर, O. हंबीर । पाअभर-0. पाअभरे । मेइणि-B. मेअणि । आण-A.C. N. आण, B. O. अणु, K. आणु । दरमरि.. विपक्ख-C. दर दलमलिअ विपक्ख, दमलि दमसु विप्पक्ख। मारु-K. मारअ । ढाल्लाB. ढोला । १४७-C. १४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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