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________________ ७०] प्राकृतपैंगलम् [१.१४६ टिप्पणी-भअ<भयेन, करण कारक में निर्विभक्तिक रूप का प्रयोग । . भज्जिअ, लग्गिअ, किअउ-ये तीनों कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत हैं, जिनका प्रयोग भूतकालिक क्रिया के लिए किया गया है। भंगु-टीकाकारों ने इसे भी कर्मवाच्य भूत० कृदंत रूप माना है। भंगिअ > *भंगिउ > *भंगउ > भंगु-इस क्रम से इसका विकास माना जा सकता है। मुक्कि-2 मुक्त्वा , 'इ' पूर्वकालिक कृदंत रूप *मुच्य (*मुक्य) / मुक्किअ / मुक्कि । पाअ-2 पादे, अधिकरण ए० व० ।। कंपा, झंपा-ये भी कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत है। इनकी आकारांत प्रवृत्ति प्रा० पैं० में खडी बोली के बीजों का संकेत कर सकती है। इनकी व्युत्पत्ति ऐसे मानी जायगी; कंपितः > कंपिओ-*कंपओ > कंपअ > कंपा । झंपित:>झंपिओ-*झंपओ > झंपअ > झंपा । चले, पले-ये दोनों कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत के 'आ' वाले रूप के तिर्यक् रूप हैं :-चला+तिर्यक्=चले, पला+तिर्यक्=पले । (तु० खड़ी बोली हि० 'चला-चले', 'पड़ा-पड़े') । चलितः>चलिओ-*चलओ > चलअ > चला (तिर्यक् चले) । पतितः > पलिओ-*पलओ > पलअ > पला (तिर्यक् पले)। आत्था आत्थी < उत्थाय उत्थाय, 'आत्थी' का 'ई' वस्तुतः पूर्वकालिक कृदंत 'इ' का दीर्धीकरण है। इसी तरह 'आत्था' का 'आ' भी 'आत्थ' का दीर्धीकरण है। पौन:पुन्य वाचक क्रिया रूप के पूर्वकालिक कृदंत में 'इ' प्रत्यय केवल परवर्ती धातु रूप के साथ ही लगाया गया है। यह प्रवृत्ति हिंदी में भी पाई जाती है। ('उठ कर उठ कर' के स्थान पर हम 'उठ उठ कर' कहते हैं ।) इसका वास्तविक रूप 'आत्थ आत्थि' होगा, जिसे छन्दोनिर्वाह के लिए उक्त रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। राणा < राजा (अथवा राज्ञा) । संस्कृत 'राजन्' शब्द का पालि में कर्ता ए० व० में 'रओ' मिलता है, किंतु अन्यत्र सभी प्राकृतों में राजा-राया रूप मिलते हैं । इसके करण ए० व० में अवश्य समान रूप 'रण्णा' मिलता है। दे० पिशेल $ ३९९, पिशेल ने भी 'राणा' को इसी 'रण्णा' (<राज्ञा) से विकसित माना है। इस प्रकार यहाँ यह 'किअउ' का कर्ता माना गया है ('काशीश्वरराजा ने प्रयाण किया') । (तु० हि० राज० राणा) ।। पआणा-वस्तुतः यह 'पआण' है, जिसे 'राणा' की तुक पर 'पआणा' बना दिया है । मंतिवरे-टीकाकारों ने इसे तृतीयान्त रूप माना है (मंत्रिवरेण) । मैंने इसे 'मंतिवर' ही-जिसे 'हरे' की तुक पर 'वरे' बना दिया गया है-कर्ता० ए० व० (मंत्रिवरः) माना है। वे इसकी व्याख्या 'विद्याधरेण भणितं मंत्रिवरेण' करते हैं; मैं इसे 'विद्याधरो भणति मंत्रिवरः' समझता हूँ। [अथ कुंडलिया छंद] दोहा लक्खण पढम पढि कव्वह अद्ध णिरुत्त । कुंडलिआ बुहअण मुणह उल्लाले संजुत्त ॥ उल्लाले संजुत्त जमक सुद्धउ सलहिज्जइ । चआलह सउ मत्त सुकइ दिढबंधु कहिज्जइ ॥ चआलह सउ मत्त जासु तणु भूषण सोहा । ऐम कुंडलिआ जाणहु पढम जह पढिअइ दोहा ॥१४६॥ १४६. पढि-B. पढ । कव्वह-B. कम्बहि । मुणहु-A. C. D. N. मुणहु, K. मुणह । संजुत्त-C. सेजुत्त । जमक-B. O. जमअ । सलहिज्जइ-N. स लहिज्जइ । चउ A. B. चौ । सऊ-A. B. सौ । एम-A. एमह, C. N. तं । जाणहु-C. जाण । जह पढिअइ-A. पढि अइ जहँ, C. पढिओ, K. पडि जह, ०. पअ पढि कहु । १४६-C. १४७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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