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________________ ६४] प्राकृतपैंगलम् [१.१२९ [पादाकुलक छंद लहु गुरु एक्क णिअम णहि जेहा, पअ पअ लक्खउ उत्तमरेहा । सुकइ फणिदह कंठह वलअं, सोलहमत्तं पाआकुलअं ॥१२९॥ १२९. पादाकुलक छंद• जिस छंद में लघु गुरु का कोई नियम नहीं होता, प्रत्येक चरण में उत्तम रेखा (मात्रा) लिखो; वह सुकविफणींद्र (पिंगल) के कंठ का हार सोलहमात्रा का पादाकुलक छंद है। टिप्पणी-जेहारयस्मिन्, यत्र । लेक्खउ<लिख, आज्ञा म० पु० ए० व० वस्तुतः धातु रूप 'लेक्ख' के साथ कर्ताकारक ए० व० का सुप् विभक्ति चिह्न जोड़कर यह रूप बना है। (लेक्ख+उ) । फर्णिदह, कंठह; दोनों संबंधकारक एकवचन के रूप हैं; 'ह' अप० संबंध कारक ए० व० विभक्ति । वलअं, "मत्तं, कुलअं में 'अं' छंदोनिर्वाह के लिए पाया जाता है। यह या तो अकारण अनुस्वार है जिसका अस्तित्व पृथ्वीराजरासो की भाषा में भी पाया जाता है :-'रजंत भूषनं तनं । अलक्क छुट्टयं मनं ।' अथवा इसे संस्कृत नपुंसक लिंग का प्रभाव भी माना जा सकता है :-'वलयं, 'मात्र, पादाकुलकं' । कुछ भी हो यह प्रवृत्ति प्रा० पैं० में परवर्ती डिंगल प्रवृत्ति के बीज का संकेत कर सकती है। जहा, सेर एक जइ पावउँ धित्ता, मंडा वीस पकावउँ णित्ता । टंकु ऐक्क जउ सैंधव पाआ, जो हउ रंक सोइ हउ राआ ॥१३०॥ [पादाकुलक] १३०. उदाहरण : यदि मैं एक सेर घी पाउँ, तो नित्य बीस मंडा (रोटियाँ) पकाउँ । यदि एक टंक भर सेंधा नमक मिले, तो जो मैं रंक हूँ, वही राजा हो जाऊँ । टिप्पणी-जइ < यदि । पावऊँ-< प्राप्नोमि ( पाव + ॐ वर्तमान उ० पु० ए० व०)। डॉ० चाटुा ने इसका विकास इस क्रम से माना है :-प्रा० भा० आ०-आमि (पठामि, ददामि), > म० भा० आ०-आमिअमि > *-अविं > *-अउँइ >-अउँ (दे० उक्तिव्यक्तिप्रकरण ६ ७१) । 'पावउँ' का विकास हम ऐसे मान सकते हैं :-प्रा० भा० आ० प्राप्नोमि, *प्रापमि > म० भा० आ० *पावामि-पावमि > *पावविँ > *पावउँइ > पावउँ। इसमें अप० रूप पाववि के अंतिम 'इ' का लोप तथा 'व' का संप्रसारण मानकर यह रूप होगा, या 'इ' का, पूर्ववर्ती सानुनासिक अंत:स्थ 'बँ' में समाहार (एसिमिलेशन) होने से यह रूप निष्पन्न होगा । मंडा < मंडक > मंडअ > मंडा । (रा० जै० मँडक्यो 'रोटी') । पकावउँ < पाचयिष्यामि; णिजंत रूप में प्रा० पैं० में धातु के ह्रस्व स्वर को दीर्घ बना दिया जाता है : Vपक + (णिजंत) = Vपका- अउँ के विकास के लिए दे० पावउँ । धित्ता, णित्ता-ये दोनों अर्धतत्सम रूप हैं। तद्भव रूप क्रमशः घृतं > घिअं> घिअ> घी, तथा नित्यं > णिच्चं > णिच्च >*णीच (*नीच) होंगे । न० भा० आ० में 'घी' रूप तो पाया जाता है, पर 'नीच' रूप नहीं मिलता। "नित' (राज० नत) अर्धतत्सम रूप है। घित्ता तथा णित्ता की पदांत 'आ' ध्वनि छंदोनिर्वाह के लिए पाई जाती है। टंक-संभवतः 'आधा छटाँक', हिंदी रा० 'टका भर' ।। १२९. णिअम-A. जेम्म, B. णियम, C. णिम्म । जेहा-0. जहा । लक्ख-C. लेक्खह । कंठह-C. कंठअ । पाआकुलअंA. पाआकुलअं, B. पासाउलअं, C. पादाकुलअं, K. पाआउलअं। १२९-C. १३२ । १३०. एक-O. एक्क । पावऊँ-B. पावइ, C. पावउ । पकाव-C. पकाउं। णित्ता-C. नीत्ता । टंकु-C. टंक । एक्क-0. एक । सैंधव-A. C. सेधउ । सोइ हउ-K. सोहउ । १३०-C. १३३ । C. पादाकुलकं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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