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________________ १.१२७] मात्रावृत्तम् [६३ ता कण्ण परक्कम-< तस्य कर्णस्य पराक्रमं । यहाँ 'कण्ण' में संबंध कारक में शुद्ध प्रातिपदिक का प्रयोग हुआ है, 'परक्कम' में कर्म कारक में शुद्ध प्रातिपदिक रूप पाया जाता है । कोइ-< कोऽपि । बुज्झ-वर्तमान में शुद्ध धातु का प्रयोग (अर्थ कौन बूझता है; अर्थात् कोई नहीं बूझता)। अह अडिल्ला, सोलह मत्ता पाउ अलिल्लह, बे वि जमक्का भेउ अडिल्लह । हो ण पओहर किंपि अडिल्लह, अन्त सुपिअ भण छंदु अडिल्लह ॥१२७॥ १२७ अडिल्ला छंद : प्रत्येक चरण में सोलह मात्रा हों, दोनों स्थानों पर चरणों में यमक हो । इसमें कहीं भी जगण (पयोधर) का प्रयोग न किया जाय । चरण के अंत में सुप्रिय (दो लघु द्विमात्रिक) हो । इसे अडिल्ला छंद कहो । टिप्पणी-भेउ-2 भवतः । किंपि-2 किमपि (किं + अपि), L किं + पि । . . जहा, जिणि आसावरि देसा दिण्हउ, सुत्थिर डाहररज्जा लिण्हउ । कालंजर जिणी कित्ती थप्पिअ, धणु आवज्जिअ धम्मक अप्पिअ ॥१२८॥ [अडिल्ला] १२८. उदाहरण जिस राजा ने आसावरी देश दे दिया, सुस्थिर डाहर राज्य ले लिया, जिसने कालिंजर में अपनी कीर्ति स्थापित की तथा धन को इकट्ठा करके धर्म के लिए अर्पण कर दिया । । टिप्पणी-जिणि-< येन, 'इ' करण ए० व० । 'जिणि' का प्रयोग पुरानी राजस्थानी में भी पाया जाता है :'जिणि यमुनाजल गाहीउं, जिणि नाथीउ भूयंग' (कान्हडदे प्रबंध. १.३); राजस्थानी में इसका अधिकरण ए० व० में भी प्रयोग मिलता है :-(१) जिणि देसे सज्जण बसइ, तिणि दिसि वज्जउ वाउ (ढोला मारूरा दोहा ७४), (२) जिणि रित नाग न नीसरइ दाझइ वनखंड दाह (वही, २८४) ।। दिण्हउ, लिण्हउ (<दत्तं, <गृहीतं); 'हउ' की व्युप्तत्ति सं० कर्मवाच्य भूत० कृदन्त 'न' (शीर्ण, विपन्न' आदि रूपों में प्रयुक्त) से है। इस भूतकालिक कृदन्त का विकास 'न' > पण >–ण्ह के क्रम से हुआ है । यह कृदंत रूप अवधी में भी पाया जाता है-'एहि तउ राम लाइ उर लीन्हा (तुलसी), एहि कारण मइँ लीन्हेउँ (नूरमुहम्मद) । राजस्थानी में भी इसका प्रयोग पाया जाता है :-'सगुणी-तणा सँदेसड़ा कही जु दीन्हा ऑणि' (ढोलामारू. ३४४) । इसका प्रयोग कथ्य राजस्थानी में भी होता है, पर यहाँ इसकी प्राणता लुप्त पाई जाती है :-'दीनूं', 'लीनूँ'; स्त्री० 'दीनी', 'लीनी' । थप्पिअ, अप्पिअ-कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त रूप (स्थापिता, अर्पित)। आवज्जिअ-< आवर्ण्य, पूर्वकालिक कृदंत प्रत्यय 'इअ' । धम्मक-< धर्माय; यहाँ 'क' सम्प्रदान का परसर्ग है। इसका सम्बन्ध संबंधकारक के परसर्ग 'के' से जोड़ा जा सकता है, जिसकी व्युत्पत्ति डॉ० चाटुा संस्कृत स्वार्थे 'क' प्रत्यय से मानते हैं (दे० वर्णरत्नाकर 8 ३१) । संभवतः कुछ लोग इसकी व्युत्पत्ति 'कृत' से मानना चाहें, पर उससे 'कृत > कअ> का' रूप बनेगा, 'क' नहीं । इस 'क' का प्रयोग संबंध अर्थ में 'गाइक घित्ता' (प्रा० पै० २.९३) में पाया जाता है। इसका प्रयोग मैथिली में होता है तथा यह वहाँ पर संबंध का परसर्ग है । (दे० भूमिका-परसर्ग)। १२७. सोलह-A. सोलाह । पाउ-C. पाअ । हो-N. होइ । पओहस्-A. पयहर, B. पयोहर । अंत सुपिअ-B. सुपिअ अंते, C. N. सुपिअ अंत । भण छंदु-0. गण छंद । १२७-C. १३० । १२८. जिणि-A. जिन्हि, C. जहिँ, K.O. जहि । देसा-C. देहा । दिण्ह:-B. विह्नउ, 0. दिण्णिउ । लिण्हऊ-0. लिण्णिउ । कालंजर-C. कालिंजर। धणु-C. धण । जिणि-0. जिहि धणु...अप्पिअ-0. धण अज्जिअ धम्महि के अप्पिअ । धम्मक-A. C. धम्मके । १२८-C. १३१ । C. अल्लिला । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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