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________________ ६२] प्राकृतपैंगलम् [१.१२४ पिंगल कहते हैं कि छप्पय नामक छंद के ये ७१ भेद प्रस्तार छन्दःकार लेते हैं। टिप्पणी-कहइ (< कथयति), लहइ (< लाति) । जत्ते सव्वहि होइ लहु अद्ध विसज्जहु ताम । तह वि विसज्जहु एक्कसरु एहि पमाणे णाम ॥१२४॥ [दोहा] इति षट्पदप्रकरणम् । १२४. छप्पय के भेदों की संख्या गिनने का दूसरा ढंग बताते हैं :-छप्पय में सर्वलघु अक्षरों से जितनी संख्या हो, उसे आधा करो (उसमें से आधा छोड़ दो), तब उन आधे में से एक शर (अर्थात् पाँच; शर का अर्थ पाँच है) फिर छोड़ दो (बाकी निकाल दो); इस प्रमाण से छप्पय भेद की संख्या जानों (बचे अंक छप्पय भेद संख्या के द्योतक हैं)। (सर्वलघु १५२ होंगे, इनका आधा ७६ होगा, बाकी निकलने पर ७१ भेद बचेंगे ।) टिप्पणी-सव्वहि-/सर्वैः, लहु-लघुभिः करण ब० व० । विसज्जहु-विसर्जयत आज्ञा म० पु० ब० व० । अह पज्झडिआ, चउमत्त करह गण चारि ठाइँ, ठवि अंत पओहर पाइँ पाई। चउसट्ठि मत्त पज्झरइ इंदु, सम चारि पाअ पज्झडिअ छंदु ॥१२५॥ १२५. पज्झटिका छंद प्रत्येक चरण के अन्त में जगण की रचना कर, चार स्थान पर चतुर्मात्रिक गण की रचना करो, इस पज्झटिका छंद में चारों चरण समान होते हैं तथा ६४ मात्रा होती हैं । (इसे सुनकर) चन्द्रमा प्रस्रवित होता है। टिप्पणी-करह-< कुरुत; आज्ञा म० पु० ब० व० । ठाई-< स्थाने, 'ई' अधिकरण ए० व० । पाई-2 पादे; 'ई' अधिकरण ए० व०, इन दोनों में नासिका का उच्चारण सम्पूर्ण संध्यक्षर पर पाया जाता है, ठाँई (th ai). पाँई (p an)। ठवि-*स्थाप्य (स्थापयित्वा), 'इ' पूर्वकालिक कृदन्त प्रत्यय । पज्झर-प्रज्झरति, Vझर् वस्तुतः अनुकरणात्मक धातु है, इसका प्रयोग संस्कृत में भी पाया जाता है । जहा, जे गंजिअ गोडाहिवइ राउ, उदंड आड्ड जसु भअ पलाउ । गुरुविक्कम विक्कम जिणिअ जुज्झ, ता कण्ण परक्कम कोइ बुज्झ ॥१२६॥ [पज्झडिआ] १२६. उदाहरण जिसने गौड देश के स्वामी राजा को मारा, जिसके भय से उदंड उत्कलराज भाग खड़ा हुआ, और जिसने गुरुविक्रम (अत्यधिक पराकमवाले) विक्रम को भी युद्ध में जीत लिया, उस कर्ण के पराक्रम को कौन जानता है ? टिप्पणी-जे-< येन; करण० ए० व० । गंजिअ, पलाउ, जिणिअ । ये तीनों कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत के रूप है। 'पलाउ' में अप० 'उ' सुप् विभक्ति है। 'जिणिअ' का वै० रूप 'जिण्णिअ' भी प्रा० पैं० की भाषा में मिलता है। १२४. सरु-B.C. सर । १२४-C. १२७ C. ईति षट्पदप्रकरणम् । १२५. च--A. चो. । करह-A. O. करहि । पाइँ पाइँ0. पाअ पाइं । चउसट्ठि-A. B. चौसट्ठि | C. चउसट्ठि । पज्झर-A. N. पज्झरइ, C. K. पज्झलइ । इंदु-C. इंदु । समA. C. एम । पज्झडिअ-C.O. पज्झलिअ, K. पज्झटिअ । १२५-C. ११८. १२६. जे-0. सो । गोडाहिवइ-B. गोडवइ C. गउलाहिवइ, K. गोलाहिवइ । आहु-A. ओड, B. मोड, C. दंड। भअ-C. जसु, 0. भए । पलाउ-B.O. पराउ, C. पसाउ। जिणिअ-C. जिण्णु । परक्कम-C. परक्कम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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