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________________ प्राकृतपैंगलम् [१.११६ पअह असुद्धउ पंगुहीण खोडउ पभणिज्जइ मत्तग्गल वाउलउ सुण्णकल कण्ण सुणिज्जइ । झलवज्जिअ तह बहिर अंध लंकारह रहिअउ वुलउ छंद उट्टवण अत्थ विणु दुब्बल कहिअउ ॥ डेरउ हट्ठक्खरहिं होइ काणा गुण सव्वहिँ रहिअ । सव्वंगसुद्ध समरूअगुण छप्पअ दोस पिंगलु कहिअ ॥११६॥ [छप्पअ] ११६. छप्पय के दोषों का वर्णन किसी एक चरण में अशुद्ध (व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध) छप्पय पंगु कहलाता है; मात्रा से हीन छप्पय खोडा कहलाता है। अधिक मात्रा वाला बावला (पागल) है, तथा शून्यफल काणा सुना जाता है (कहलाता है)। झल् प्रत्याहार (अर्थात् झ, भ, घ, ढ, ध आदि वर्णों) से रहित छप्पय बहरा है, तथा अलंकार से रहित अंधा है। उट्टवणिका से रहित (अर्थात् जहाँ मनमाने गणों का प्रयोग कर षट्कल गण के स्थान पर पंचकल का प्रयोग कर दिया गया हो, या चतुष्कल के स्थान पर पंचकल या त्रिकल का प्रयोग कर दिया गया हो) छप्पय बूला (गूंगा) कहलाता है, तथा अर्थरहित दुर्बल है। हठाक्षरों (जबर्दस्ती जोड़े गये) अक्षरों के द्वारा डेरा (टेढी आँखवाला) होता है, तथा सर्वगुण रहित छप्पय काणा होता है। समस्त रूप एवं गुण से संपन्न छप्पय सर्वांगशुद्ध होता है । इस प्रकार पिंगल ने छप्पय के दोष कहे हैं। टिप्पणी-पअह-(अधिकरण कारक ए० व० < पदे) 'ह' अधिकरण ए० व० विभक्ति । खोड:-< सं० खुटितः > खुडिओ > *खोडओ > खोडउ (रा. खोड्यो), हि० खोडा । पभणिज्जड़ (< प्रभण्यते), सुणिज्जइ (< श्रूयते) कर्मवाच्य रूप । वज्जिअ, रहिअउ, कहिअउ, रहिअ, कहिअये सब कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त रूप हैं, 'उ' वाले रूप सविभक्तिक हैं, अन्य निर्विभक्तिक । ये सब कर्ता (कर्मवाच्य कर्म) ए० व० के रूप हैं । हट्ठक्खरहिँ-< हठाक्षरैः 'हिँ अप० करण ब० व० विभक्ति चिह्न । सव्वहिँ-'हिँ' करण ब० व० विभक्ति चिह्न ।। गुण-< गुणैः करण ब० व० के अर्थ में शुद्ध प्रातिपदिक का प्रयोग । लंकारह < अलंकारेण; पदादि का 'अ' का लोप, 'ह' मूलतः अप० संबंधकारक की विभक्ति है, किन्तु इसका विस्तार करण-अधिकरण में भी देखा जाता है।। विप्प होइ बत्तीस खत्ति बेआल कहिज्जसु । अठतालिस लहु वेस सेस सुद्दउ सलहिज्जसु ॥ ११६. पअह असुद्ध-C. पअ पअ सुद्धउ । वाउल-A. B.C. वाउल । कण्ण-C. कह । सुणिज्जइ-B. मुणिज्जसु । झल-C. फल । तह बहिस्-C. गुणरहिअ । लंकार -A. B. C. लंकार', K. अलंकार०, N. लंकारह । वुल-C. वोलउ । छंद उट्टवण-C. छंदुट्टवण । डेरउ... होइ-0. डेरउ अ हठुक्खरहि हो । छप्पअ-A. कव्वह । पिंगलु कहिअ-0. पिंगला कह। ११६-C. ११८ । [C. प्रतौ एतत्पद्यमपि प्राप्यते : कइ पीडइ पंगु लछिअ पहरिअउ खोडउ, कूलहाणिअ वाउलउ कल्ल होइ पउरु सक्कोलउ । सुद्धि हरइ विमलंगु दुमण होइ अद्ध पआसइ दुव्वल उव्वण वहइ देउ लउ कित्ति विणासइ ।। काण कुव्व बहुदुख्खकर पिंगल जंपइ कवि अणहु । तलउ जाणि छप्पअ करहु सेस रहिज्जउ गुणिजणहु ॥ ११९] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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