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१.११७]
मात्रावृत्तम्
[५९
चउअग्गल पउ बीस मत्त छाणवइ ठविज्जसु । पचतालीसह णाम कव्वलक्खणह करिज्जसु ॥ छहबिस उल्लालहि एक्क कइ बिण्णि पाअ छप्पअ मुणहु ।
समवण्ण सरिस समदोसगुण णाम एहत्तरि परि मुणहु ॥११७॥ [छप्पअ] ११७. बत्तीस लघु वाला छप्पय ब्राह्मण है, बयालीस लघुवाला क्षत्रिय है, अडतालीस लघुवाला वैश्य होता है, शेष अक्षरों वाला शूद्र कहलाता है। इस प्रकार प्रत्येक चरण में चार अधिक बीस (२४) मात्रा, तथा कुल काव्य के चार चरणों में छानवे मात्रा रखी जायँ । काव्य के इस तरह ४५ नाम (भेद) किये जायँ । उल्लाला की २६ गुरु मात्राओं को एक कर दो चरणों में बाँटो तथा इसे काव्य के साथ जोड़कर छप्पय समझो । इस छप्पय में काव्य के समान ही वर्ण तथा दोष गुण होते हैं तथा इसके ७१ नाम (भेद) गिनो ।
टिप्पणी-बत्तीस-< द्वात्रिंशत् (दे० पिशेल ६४४५ प्रा० बत्तीसं बत्तीसा; प्रा० प० राज० बत्रीस (टेसिटोरी ६८०), हि० रा० बत्तीस ।)
बेआल-< द्वाचत्वारिंशत् (दे० पिशेल ४४५ जैनमहा० 'बेयाल' संभवतः प्रा० पै० का कथ्य रूप सश्रुतिक 'बेयाल' ही होगा । प्रा० पै० में 'बाआ लीस' रूप भी मिलता है।
अठतालिस-< अष्टचत्वारिंशत्; 'चत्वारिंशत्'का 'आलीस-आलिस' 'तालीस-तालिस' दोनों तरह का विकास म० भा० आ० में पाया जाता है । अष्टचत्वारिंशत् > अट्ठअत्तालीसं > अट्ठत्तालीसं > अठतालिस । दे० पिशेल ६ ४३५ अर्धमा० जैनमहा० अढतालीसं (वै० रू० अट्ठचत्तालीसं), अप० अढआलिस, प्रा० प० राज० अठतालीस (टेसिटोरी ८०)।
छाणवइ-< षण्णवति > छण्णउई > छाणवइ । (दे० पिशेल ६ ४४६ अर्धमा० छण्णउइं-छण्णउई, प्रा० प० रा० छ्याD, टेसिटोरी, ६ ८० हि० छियान्वे; राज० छनमें 1)
पचतालीसह-< पंचचत्वारिंशत् (दे० पिशेल ६४४५, अर्धमा० 'पणयाल', प्रा० प० रा० 'पंचतालिस' टेसिटोरी $ ८०, हि० रा० पैंतालीस)।
छहबिस-< षट्विंशति; पिशेल ६ ४४५; अर्धमा० छव्वीसं, अप० छब्बीसा, छहवीसा; हि० रा० छब्बीस ।
एहत्तस्-ि< एकसप्तति; पिशेल ६ ४४६, सप्तति > सत्तर-सत्तरि (अर्धमा० जैनमहा०) एक्कसत्तरं (अर्ध मा०, जैनम०) > *एक्कहत्तरं > एहत्तरि । प्रा० प० रा० एकोतरह, टेसिटोरी ६ ८०, हि० इकहत्तर, रा० इगत्तर-अगत्तर ।
कहिज्जसु, सलहिज्जसु, ठविज्जसु, करिज्जसु-कुछ टीकाकारों ने '-ज्ज' कर्मवाच्य रूप माना है, कुछ ने विधि रूप; क्योंकि वे इसे आज्ञावाचक 'कथय, श्लाघय, स्थापय, कुरु' से अनूदित करते हैं। म० भा० आ० में आकर कर्मवाच्य प्रत्यय 'य' (पठ्यते, क्रियते, लिख्यते) तथा विधिवाचक 'य' (जो मूलतः आशीलिङ् का 'या' है, क्योंकि संस्कृत के विधि लिङ् रूपों में यह विकरण नहीं होता) दोनों 'इज्ज' के रूप में विकसित हुए हैं। अत: कभी कभी दोनों में भेद करना कठिन हो जाता है। यहाँ ये कर्मवाच्य रूप में ही जान पड़ते है।
कव्वलक्खणह < काव्यलक्षणे; अथवा < काव्यलक्षणस्य । इसे संबंध कारक या अधिकरण कारक का ए० व० रूप माना जा सकता है। अह उल्लाल लक्खण,
तिणि तुरंगम तिअल तह छह चउतिअ तहँ अंत । ऐम उल्लाला उट्टवहु बिहु दल छप्पण मंत ॥११८॥ [दोहा]
११७. होइ-A. N. होइ, C.O. लोअ, K. होअ (तु० लोअ, कलकत्तासंस्करणस्य A. B.C. प्रतिषु) । कहिज्जसु-C. भणिज्जइ; K. करिज्जसु (तु० भणिज्जसु, कलकत्तासंस्करणस्य A. प्रतौ)। मत्त-B. मत्ता । छाणवइ-C. छण्णवइ । छहबिस-B.C. छहवीसु । उलालहि-0. उल्लालउ । कइ-0. कए । परि-0. अउ । ११८. C. अथोल्लालालछणं । तिअल-B तीअ । तह-B लहु । छहB. छउ । उट्टवहु-C. संठवहु । मंत्त-0. मत्त ।
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