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________________ १.११२] मात्रावृत्तम् [५७ हर, वितर-इन्हें कुछ टीकाकारों में आज्ञा म० पु० ए० व० रूप माना है, कुछ ने आज्ञा प्र० पु० ए० व० रूप। (Vहर+०, वितर+०) जह जह वलआ वड्डिहइ तह तह णाम कुणेहु । संभुहि सउँ भण भिंगगण चउआलीस मुणेहु ॥११२॥ [दोहा] ११२. जैसे जैसे काव्य के भेद में एक एक गुरु (वलय) बढ़ता जाता है, वैसे वैसे अन्य नाम करो । शंभु से लेकर शृंगगण तक कहो और अन्य ४४ भेदों को समझो। (इस प्रकार शक, तथा शंभु से लेकर ग तक ४४ अन्य भेद, पूरे ४५ भेद काव्य में होते हैं । ) टिप्पणी:- जह, तह-यथा, तथा । संभुहि सउँ (हि. शंभु से) । 'सउँ' अपादान कारक का परसर्ग है, तु० हि० से-सैं, रा० । इसका विकास सं० 'सम' से हुआ है; दे० भूमिका-परसर्ग । ता सक्को संभो सूरो गंडो खंधो विजओ दप्पो तालंको समरो सीहो सीसो उत्तेओ पडिवक्खो । परिधम्म मरालु मइंदो दंडो मक्कलु मअणु मट्ठो वासंतो कंठो मोरो बंधो भमरो भिण्णमरठ्ठो ॥११३॥ वलहद्दो राओ वलिओ मोहो संथाणो बलि मेहो सहसक्खो बालो दरिओ सरहो दंभोऽहो उदंभो । वलिअंको तुरओ हरिणो अंधो मुद्धीए तह भिंगो वत्थूआ णामो पिंगलणाओ जंपइ छंदपबंधो ॥११४॥ [चउपइआ] ११३-११४ काव्य के पैंतालीस भेदों की नामावली शक्र, शंभु, सूर्य, गंड, स्कंध, विजय, दर्प, ताटक, समर, सिंह, शीर्ष, उत्तेजा, प्रतिपक्ष, परिधर्म, मराल, मृगेंद्र, दंड, मर्कट, मदन, महाराष्ट्र, वसंत, कंठ, मयूर, बंध भ्रमर, भिन्नमहाराष्ट्र, बलभद्र, राजा, वलित, मोह, मथान, बलि, मेघ, सहस्राक्ष, बाल, दृप्त, शरभ, दंभ, अह, उद्देभ, वलितांक, तुरग, हरिण, अंध तथा भंग हे मुग्धे, पिंगल नाग ने छन्द:प्रबंध में वस्तु के भेदों के ये नाम कहे हैं। पचतालीसह वत्थुआ छंदे छंद विअंभ । अदा कड पिंगल कहड चलड ण हरिहर बंभ ॥११५॥ [दोहा] ११५ वस्तु छंद में ४५ छंद (भेद) प्रसार पाते हैं । पिंगल कवि सच कहते हैं, इसे हरिहर बंभ भी अन्यथा सिद्ध नहीं कर सकते । (एक टीकाकार ने इसके चतुर्थ चरण की व्याख्या यह भी की है :-'ग्रंथकर्ता हरिहर ब्रह्मा नामक बन्दी नहीं चलता अर्थात् भ्रांत नहीं होता । (अथ च ग्रंथकर्ता हरिहर बन्दी न चलति न भ्रांतो भवतीत्यर्थः ।). टिप्पणी-पचतालीसह < पंचचत्वारिंशत् (दे० पिशेल ४४५; अन्य म० भा० आ० रूप अर्धमा० पणयालीस, पणयालीसं । प्रा० प० रा०; पँचितालीस (टेसिटोरी ८०); हि० पैंतालीस)। ११२. जह....वड्डिहइ-C. वलआ वढ्इ जह जह । कुणेहु-C. मुणेहु । संभुहि स-C. सक्कहि से । भण-O. लए। चउआलीसA. B. चौआलीस, C. पचतालीस । मुणेहु-C. कुणेहु । ११२-C. ११४ । ११३-११४ संभो-C. शंभो । विजओ-C. विजयो। समरो-C संम्मरो। सीसो-N. रेसो । मखो-0. मरहट्ठो । वासंतो-A.N. वासंतो, B. वासंत, C. वासंठो, K. बासंठो । मोहोA. C. K. मोहो, B. N. रामो । मेहो-C. N. मोहो । सहसक्खो -N. सहसरको । दंभोऽहो उद्देभो-0. दंभो उद्देभो हो । वलिअंको-0. वलिअंगो । ११५. छंदे छंद विअंभ-C. छंद बिअंभ, B. "विभंत । पिंगल-B. पिंगलु । ११५-C. ११७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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