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________________ प्राकृतपैंगलम् [१.१०९ कई-< कृत्वा; पूर्वकालिक क्रिया प्रत्यय 'इ' । पढ-/पढ+०; आज्ञा म० पु० ए० व० । अह कव्व लक्खण, आइ अंत दुहु छक्कलउ तिण्णि तुरंगम मज्झ । तीए जगणु कि विप्पगणु कव्वह लक्खण बुज्झ ॥१०९॥ [ दोहा ] १०९. छप्पय के प्रथम चार चरणों में प्रयुक्त काव्य छंद का लक्षण : काव्य छंद के प्रत्येक चरण में आदि तथा अंत में दो षट्कल होते हैं, तथा मध्य में तीन चतुष्कल (तुरंगम) होते हैं। इनमें तीसरे स्थान पर (अर्थात् द्वितीय चतुष्कल में) या तो जगण (151) हो या विप्रगण (चार लघु, Im) हो, इसे काव्य का लक्षण समझो । टिप्पणी-मज्झ-< मध्ये; अधिकरण ए० व० । कव्वह-< काव्यस्य; 'ह' । लक्खण-< लक्षणं कर्म ए० व० । बुज्झ-Vबुज्झ+०; आज्ञा म० पु० ए० व० सं० बुध्यस्व । चउ अग्गल चालीस गुरु एक्कक्के गुरु लेहु । जो गुरुहीणउ सक्क सो णाम ग्गहण कुणेहु ॥११०॥ [दोहा] ११०. शक छंदः चार अधिक चालीस (चवालीस) गुरु में से एक एक गुरु लेते जायँ (कम करते जाय तथा उसके स्थान पर दो दो लघु बढ़ाते जायँ), इस तरह जब गुरुहीन (सर्व लघु) भेद हो, उसे शक कहें ( शक नाम का ग्रहण करो)। टि०-लेहु, कुणेहु-आज्ञा म० पु० ब० व० । जहा, जसु कर फणिवइ वलअ तरुणिवर तणुमह विलसइ । णअण अणल गल गरल विमल ससहर सिर णिवसइ ॥ सुरसरि सिरमह रहइ सअलजण दुरित दमण कर । हसि ससिहर हर दुरिअ विहर हर अतुल अभअवर ॥१११॥ [सक्क] १११. उदाहरणः जिनके हाथ में सर्प का कंकण है, शरीर में पत्नी (श्रेष्ठ स्त्री) सुशोभित है, नेत्र में अग्नि है, गले में जहर है, सिर पर निर्मल चंद्र निवास करता है, सिर में गंगा रहती है, जो सब लोगों के दुःख का दमन करने वाले हैं, वे शशिधर (शिव) हँसकर दुःख को हरें, तथा अतुल अभय का वर प्रदान करें । टि. तणुमह, सिरमह-'मह'; अधिकरण कारक का परसर्ग । १०९. B. अथ काव्यं, C. अथ काव्यलक्षणौ । दुहु-B. दुइ । तुरंगम-O. चउक्कल । मज्झ-B. मज्ज, C. मझ्झ । तीए-B. तीय । जगणु-C. जगणु। विप्पगण-C.O. विप्पगणु । कव्वह लक्खण बुज्झ-0. वुज्झ (xx) लक्खण 1 १०९-C. १११0. १०८ । ११०. चउ अग्गल-B. चतुग्गल, C. चउ अक्कल । एक्कक्के-C. एक्कके । लेहु-B देह । णाम ग्गहण-C. नाम गहण । कुणेहु-C.O. करेहु । ११०-०. १०९ । १११. कर-C. करु । विलसइ-C. विलसई । गल-0. लग । विमल-C. विम । ससहर-A. ससि जसु, B. ससि । णिवसइ-C. णिवसई। रहइ-C. रइ, सउलजण-0. सअलमण वहइ . दमण-C. दमन, 0. दलण । ससिहर हर दुरिअ-C. ससिहर हर हरउ दुरित । वितर हर.....अभअवर-A. वितरइ सों, B. वितरु हर; C. तुअ वितरउ अभअवर । ससिहस्-0. ससहर । हस्-0. अर | दुरित... वस्-0. हरउ दुरित तुअ दिसउ अभअवर । सक्क-C. शक्रः । १११C. ११३, ०. ११० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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