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________________ १. १०८ ] मात्रावृत्तम् [ ५५ गंथि गंथि - का कुछ टीकाकारों ने 'ग्रंथ ग्रंथि' अनुवाद किया है। संभवत: इसका अनुवाद 'ग्रंथे ग्रंथे' होना चाहिए, 'हर ग्रन्थ में-ग्रन्थ ग्रन्थ में' 'इ' अधिकरण ए० व० चिह्न है। वि मरह-निर्णयसागर का पाठ 'गंध गंधिअ मरहु' (ग्रंथं ग्रंथित्वा म्रियध्वं ) है; अन्य प्रतियों का पाठ 'विमरह' (विमृशत) है। हमने 'गंथि गंधि वि मरह' पाठ माना है: 'विमृशत' वाला अर्थ हमें जँचता नहीं 'ग्रंथ ग्रंथ को ढूंढकर क्यों मरते हो' वाला अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है । 'वि' को हम 'अपि' वाला रूप मानते हैं। मर+ह आज्ञा म० पु० ब० व० । जहा, जहा सरअ ससि बिंब जहा हरहार हंस ठिअ । जहा फुल्ल सिअ कमल जहा सिरिखंड खंड किअ ॥ जहा गंग कल्लोल जहा रोसाणिअ रुप्पड़ । जहा दुद्धवर सुद्ध फेण फंफाइ तलप्फड़ ॥ पिअ पाअ पसाए दिट्ठि पुणु णिहुअ हसइ जह तरुणिजण । वरमंति चंडेसर कित्ति तुअ तत्थ देक्ख हरिबंभ भण ॥१०८॥ [छप्पय ] १०८ उदाहरण जिस प्रकार शरत्कालीन चन्द्रबिंब सुशोभित होता है, जैसी हरहास (शिव के अट्टहास) तथा हंस की स्थिति है, जैसा प्रफुल्लित श्वेत कमल होता है, तथा खण्ड खण्ड करने पर श्रीखंड (चन्दन) प्रतीत होता है, जैसी गंगा की कल्लोल होती है, जैसी तपाई हुई चाँदी होती है, जिस तरह दूध का कोमल फेन फफता हुआ (काँपता) तड़फड़ाता (उफनता ) हैं, प्रिय के चरणों पर गिरने पर जिस तरह तरुणियाँ चुपके से हँसकर प्रिय की ओर जिस दृष्टि से देखती है, हरिब्रह्मा कहता है, हे मन्त्रिवर चंडेश्वर, तुम्हारी कीर्ति वैसी ही दिखाई देती है । टिप्पणी- जह, जहा - सं० यथा, तत्थ - सं० तथा । तुअ - तव दे०. पिशेल ४२० वै० रूप तउ, तुज्झु, तुज्झह, तुध्र, तुह । 'तुअ' को 'तुह' का प्राणध्वनिरहित (deaspireted) रूप माना जा सकता है । देख - दृश्यते कर्मवाच्य वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० में धातु रूप। यहाँ कुछ टीकाकारों ने इसे आज्ञा म० पु० ए० व० रूप माना है ( < पश्य ) । भण - भणति ; वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० धातु रूप ( भण+ ० ) । [कलकत्ता संस्करण में तथा A एवं C. प्रतियों में निम्न पद्य अधिक मिलता है: चारि पाअ भण कव्वके वे वि पाअ उल्लाल । इम बिहु लक्खणऐक कड़ पढ छप्पर पत्थार || १०८क ।। ] १०८ क. काव्य (रोला) के चार चरण, उल्लाल के दो चरण, इन दो लक्षणों को एक कर छप्पय छंद के प्रस्तार को पढ़ो । टिप्पणी० कव्वके- काव्यस्य 'के' संबंध कारक का परसर्ग अशाल - <डावालस्य संबंध कारक में प्रतिपादिक रूप का प्रयोग I १०८. जहा C. जहाँ हरु A. हई जहा - C. जहाँ सिस्-ि C. सिर। किअ- C. O दिअ। जहा C. जहाँ रोसाणिअO. रासोणिअ । रुप्प - C. रुप्पई । दुद्धवर - B. दुद्धवरि, C. दुद्धअरु, O सुद्धवर । सुद्ध - C. N. मुद्ध। फंफाइ - B. संकाइ । तलष्कड़- B. लफुप्पृह, C. K. O तलप्पड़ पाअ - C. पाए पसाएO पसासए। दिट्ठि C. दिठ्ठि । पुणु - A. पणु, C. मण । जह-C. जहा । चंडसर—–C. चडेसर । कित्ति तुअ तत्थ - O तत्थ तुअ कित्ति । हरिबंभ - B, हरिबम्ह । १०८ -C. १०९. O. १०७ | १०८क. पाअ - C. पाए इम । भण कव्वके -C. कव्व भण । इम बिहु - C. दुहु । एक्क कइ -C. पढ एक्क कई । पढ C. इअ । १०८ क - C. ११०, O अस्मिन् हस्तलेखे न प्राप्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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