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________________ ५४] प्राकृतपैंगलम् [१.१०७ न० भा० आ० में निष्ठा प्रत्यय है। इसके लिए दे० वर्णरत्नाकर ६ ४९ पृ. vi; तथा डॉ. सुभद्र झा : विद्यापति (भूमिका) पृ. १६७ । 'उ' वाला पाठ लेने पर कुछ टीकाकारों ने इसे क्रिया रूप माना है-Vउड्डउ; वर्तमान उ० पु० ए० व०, कुछ ने कर्ता कारक ए० व० रूप (उड्डीयमानः सन्, उड्डितः सन्) । णहपह-अधिकरण कारक ए० व० शून्य विभक्ति ( नभ:पथे) । खग्ग-कर्म कारक ए० व० शून्य विभक्ति । सीसहि-अधिकरण कारक ए० व० । ठल्लि पल्लि-पूर्वकालिक क्रिया प्रत्यय 'इ' । यद्यपि यहाँ यह संयुक्त क्रिया रूप नहीं है, क्योंकि दोनों क्रियाओं के साथ 'इ' प्रत्यय लगा है, पर इनका एक साथ प्रयोग परवर्ती हि० संयुक्त क्रिया रूप 'ठेलपेल कर' का आदिम रूप कहा जा सकता है। 'कज्जु-'उ' कर्म कारक ए० व० विभक्ति । यहाँ सम्प्रदान के लिए कर्मका प्रयोग है। कोहाणलमह-< क्रोधानले (क्रोधानलमध्ये)-'मह' परसर्ग अधिकरण में प्रयुक्त हुआ है; इसके लिए दे० ६८७ । मइ-< सं० मया, इसका विकास कर्मवाच्य कर्चा (करण) ए० व० रूप से हुआ है, पर यहाँ यह कर्तृवाच्य कर्ता का रूप है, तु० हि० मैं, रा० । 'मई' के लिए दे० पिशेल ६ ४१५ । पिशेल ने इसे कर्म ए०व० तथा करण अधिकरण ए० व० का रूप माना है। अप० में यह सानुनासिक 'मइँ है। साथ ही दे० तगारे ११९ ए० । हेम० ने भी इसी का संकेत किया है-'टाड्यमा मई' ८-४-३७७ । (मइ-मया, मयि, माम्; टा-मइ जाणिउं पिअ विरहि विरहि अह' ) । तज्जि-पूर्वकालिक क्रिया प्रत्यय 'इ' (संत्यक्त्वा; *त्यज्य) पअ पअ तलउ णिबद्ध मत्त चउबीसह किज्जइ । अक्खर डंबर सरिस छंद इअ सुद्ध भणिज्जइ ॥ आइहि छक्कलु होइ चारि चउकलउ णिरुत्तउ । दुक्कल अंत णिबद्ध सेस कइ वत्थु णिवुत्तउ ॥ बावण्ण सउ वि मत्तह मुणहु उल्लालउ सहिअउ गुणह । छप्पअ छंद एरिसि वि होइ काइँ गंथि गंथि वि मरह ॥१०७॥ [छप्पय] १०७. पट्पद का लक्षण पुनः प्रकारान्तर से बता रहे हैं: षट्पद के चरण चरण में चौवीस मात्रा निबद्ध करे, यह छंद अक्षराडंबर सदृश होने पर शुद्ध कहलाता है। इसमें आरंभ में षट्कल, फिर चार चतुष्कल कहे गये हैं, अन्त में दो कल (द्विकल) का निबन्धन करे । शेष कवि ने इसे ही वस्तु (छंद) कहा है। इसमें एक सौ बावन मात्रा समझो तथा उल्लाला के साथ इसकी गणना करो । छप्पय छंद ऐसा भी होता है, तुम लोग ग्रन्थ-ग्रन्थि में क्यों मरते हो।। (कुछ टीकाकारों के मत से यह पद्य क्षेपक है ।) टिप्पणी-चउबीसह < चतुर्विंशति (पिशेल ६४४५), प्रा० प० रा० चउबीस (टेसिटोरी ६८०), हि० चोबीस । बावण्ण-< द्वापंचाशत् ('वण्ण') के लिए दे० पिशेल २७३, ६४४५ ) > बा+वण्ण, प्रा० प० रा० बावन । काइँ-< किं, काइँ के उच्चारण में संभवतः नासिक्य तत्त्व संपूर्ण संध्यक्षर या संयुक्तस्वर (आई) पर पाया जाता होगा, तथा इसका उच्चारण 'काँई' होता होगा । राजस्थानी में आज भी यह उच्चारण (Ka7) पाया जाता है। १०७, तलऊ-A. तलह, C. तलहु, O. तलहि । णिबद्ध-B. णिबद्धा, C. णिठवहु । चउबीसह-A. चौबीसहि, B. चोवीसइ, C. चौवीसह। डंबर-C. डम्बर । छंद इअ सुद्ध भणिज्जइ-0. छंदअ सुद्ध गमिज्जइ । भणिज्जइ-C. भणिजई । आइहि-C. एहि । छक्कलु C. छक्कल । णिरुत्त-C. णिरुत्तरउ। कइ-0. कहइ । णिवुत्त-C. णिरुत्तउ । बावण्ण-C. वामण । मुणहुC. मणहु । बावण्ण सउ वि मत्तह मुणहु-O. वामण्ण अधिअ सअ मत्त होइ । सहिअ-A. सहिअ, C. O. सरिसउ । गुणहC. गुणहु, 0. मुणहु, । काइँ-C. कांइ । गंथि गंथि-A. गंथ गंथि, O. गंथि गंथ । । वि मरह-B. विमरसह (=विमृशत), C. वि मरहु, 0. अ मरहु । १०७-C. १०८, O. १०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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