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________________ १.८८ ] मात्रावृत्तम् ८७. रसिका छंद का उदाहरण: किसी राजा की प्रशंसा है: - 'इस राजा को युद्धस्थल में देखकर अचल (राजा का नाम, अथवा पहाड़ी प्रदेश का राजा) विमुख होकर रण से चला गया। मलयनरपति भी घोड़ों व हाथियों को छोड़कर हलहला उठा ( घबड़ा गया) । जिस राजा का यश त्रिभुवन में व्याप्त है, ऐसा वाराणसीनृपति भग गया। इस तरह इस राजा का यश (रूपी पुष्प) सब से ऊपर प्रफुल्लित हुआ । टिप्पण- विमुह< विमुखः; कुछ टीकाकारों ने इसे कर्ताकारक ए० व० में माना है, कुछ ने क्रियाविशेषण (विमुखं यथा स्यात् तथा । हमारे मत से यह कर्ता ए० व० में ही है; विमुह + शून्य (सुप् विभक्ति) 1 चलिअ, हलहलिअ, लुलिअ, फुलिअ-ये चारों कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत 'इअ' के रूप हैं। इनका प्रयोग यहाँ भूतकालिक क्रिया के अर्थ में हुआ है। म० भा० आ० में भूतकालिक तिडंत रूपों के स्थान पर कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप चल पड़े है। हिंदी के भूतकालिक रूपों का विकास इन्ही कृदंतों से हुआ 1 चलिअ ( /चल + इअ ) हलहलिअ ( / हलहल, अनुकरणात्मक धातु + इअ ) लुलिअ ( / लुल- (सं. धातु 'लुल्' अर्थ हिलना ) + इअ ) फुलिअ ( /फुल्ल+ इअ; मं० भा० आ० रूप 'फुल्लिअ' होगा । प्रा०पै० का 'फुलिअ' रूप छन्द की सुविधा के लिए संयुक्ताक्षर 'ल्ल' सरलकर बनाया गया है) । अचलु, 'गअवलु - 'उ' कर्ताकारक ए० व० अपभ्रंश विभक्ति । जस यश: 'संस्कृत के हलंत प्रातिपदिक का अजंतीकरण । सअल उपरि-सं. में उपरि के संबंधी पद में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है (तु० तस्योपरिष्टात् तस्योपरि ) । यहाँ 'उपरि' के पूर्व केवल प्रातिपदिक रूप का प्रयोग हुआ है । यह तथ्य 'उपरि' के परवर्ती रूप 'पर' परसर्ग की ओर ध्यान दिला सकता है। हिंदी में 'उपर' के साथ संबंधकारक का प्रयोग मिलता है । [ ४३ आइकव्व उक्कच्छ, किउ लोहंगिणि मह सारु । गुरु वड्डइ बि बि लहु घटइ, तं तं णाम विआरु ॥८८॥ [दोहा ] ८८. रसिका छंद के भेदों का संकेत करते हैं.: रसिका या उक्कच्छा का प्रथम भेद (आदि काव्य) लोहंगिनी हैं, (जो) रसिका के भेदों में उत्कृष्ट (सार) है । इस भेद में क्रमश: एक एक गुरु बढ़ता जाय तथा दो दो लघु घटते जायँ, तो अन्य भेद होते हैं, उनके तत्तत् नाम का विचार करना चाहिए । Jain Education International टिप्पणी- किउ कृतः (कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप 'उ' अपभ्रंश प्रत्यय) घट - Vघट+इ वर्तमान प्र० पु० ए० व० । मह - इसका प्रा० पै० में अन्य रूप 'महँ' भी हैं; इसकी व्युत्पत्ति 'मध्ये' से हैं। यह अधिकरण बोधक परसर्ग है । (हि० में) । लोहंगिणि हंसीआ, रेहा तालंकि कंपि गंभीरा । काली कलरुद्दाणी उक्कच्छा अट्ठ णामाइँ ॥८९॥ [ गाहा ] T ८८. D. दोहा । उक्कच्छ-B. उक्कच्छ । किउ-D. किअ । लोहंगिणि-D. लोहंगिणी । सारु - D. सार । गुरु...घटइ - C. गुरु दुइ वेलहु चलइ । घटइ - B. पठइ । वड्डइ - K. बड्डड्इ, N. वट्ठइ । बि लहु, N. विचल । विआरु - D. विआर। ८९. हंसीआC. D. N. हंसिणिआ O. हंसीणी । कलरुद्दाणी - D. कलरुद्राणी । णामाइँ - A. O. णामाइ, C. णामाई, D. णामांइं, K. णामाई, N. नामाई । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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