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________________ ४४] प्राकृतपैंगलम् [१.९० ८९. रसिका के आठ भेदों के नाम लोहंगिनी, हंसी, रेखा, ताटंकिनी, कंपिनी, गंभीरा, काली, कालरुद्राणी-उत्कच्छा (उक्कच्छा रसिका) के ये आठ भेद होते हैं। टिप्पणी-णामाईं; अप० नपुंसक लिंग बहुवचन में ह्रस्व 'इ' (') होता है। लोहंगिणि सव्व लहू जत्थ गुरु एक्क सा हंसी । ___ जं जं वड्डइ हारो णामं जो जत्थ सो तत्थ ॥९०॥ [गाहू] [इति उक्कच्छा] ९० लोहंगिनी में सब अक्षर लघु होते हैं, जहाँ एक अक्षर गुरु हो वह हंसी नामक भेद है । ज्यों ज्यों जहाँ जहाँ गुरु बढ़ता जाता है, त्यों त्यों वहाँ वहाँ उस उस नाम को जानना चाहिए । टिप्पणी-णामं । सं० नाम, नपुंसक लिंग कर्ता ए० व० है । यह रूप संस्कृताभास या अर्धतत्सम है । 'अं' विभक्ति का प्रयोग अप० में नहीं होता । साथ ही इसके साथ प्रयुक्त 'जो' 'सो' पुल्लिंग में हैं, जो अप० 'लिंगमतंत्र' के उदाहरण हैं। जत्थ, तत्थ < यत्र, तत्र (दे० पिशेल 8 २९३) । अह रोला, पढम होइ चउवीस मत्त अंतर गुरु जुत्ते, पिंगल हाँते सेस णाअ तण्हि रोला उत्ते । एग्गाराहा हारा रोला छन्दो जुज्जइ, एक्के एक्के टुट्टइ अण्णो अण्णो वड्डइ ॥११॥ [रोला] ९१. रोला छंद: पिंगल के रूप में उत्पन्न होते शेष नाग ने रोला छंद कहा है। इसमें मध्य में गुरु अक्षरों से युक्त २४ मात्रायें होती है । रोला छंद में ११ गुरु (हार) प्रयुक्त होते हैं, एक एक गुरु टूटता रहता है तथा अन्य अन्य लघु बढ़ता रहता है, इस तरह रोला के अन्य भेद होते हैं । टिप्पणी-चउवीस(चतुर्विशत् (दे० पिशेल ४४५ प्रा०पैं० में 'चउवीसह' (१-१०७) रूप भी मिलता है; प्रा०प०रा० 'चउवीस, दे० टेसिटोरी ८०; हि० चोवीस, रा० चोबीस-चोईस (वै० चोई)। मत्त-सं० 'मात्रा' स्त्रीलिंग का लिंगव्यत्यय । प्रा०पैं० की अवहट्ट भाषा में 'मत्त' शब्द पुं० तथा नपुं० लिंग दोनों रूपों में मिलता है। नपुं० में इसका केवल ब०व० रूप 'त्ताइँ' (*मात्राणि) उपलब्ध होता है। बाकी ‘मत्त' प्रातिपदिक तथा ए० व० रूप तथा 'मत्ता' ब०व० रूप पुल्लिंग है। होते-टीकाकारों ने इसकी व्याख्या दो तरह की है:-(१) अभवत् (२) भवता । द्वितीय व्याख्या अधिक संगत जान पड़ती है। इस प्रकार यह 'हाँता' प्रातिपदिक का तिर्यक् रूप है, जो कर्मवाच्य कर्ता का रूप है। तण्हि-यह करण तथा कर्मवाच्य कर्ता कारक का रूप है। संस्कृत टीकारारों ने इसे 'तेन' का रूप माना है, पर मूलतः यह ए० व० न होकर ब०व० रूप (आदरार्थे) जान पड़ता है। इसकी व्युत्पत्ति *तेभिः (तैः) से है। 'हि'-'हिँ" अप० में करण ब०व० की सुप् विभक्ति है। - डॉ. चाटुा के मतानुसार इसकी व्युत्पत्ति प्रा० भा० आ० (संस्कृत) तृतीया ब०व०-'भिः' तथा षष्ठी ब०व०'आनाम्' (ण) के योग से हुई है-'ण+हि' =ण्हि । इसका 'न्हि' रूप वर्णरत्नाकर में मिलता है, जहाँ करण ब०व० तिर्यक् ९०. सव्वलहू-B. सव्वलघू । गुरू-A. B. D. गुरु । एक्क-C. चारि, D. एक । सा हंसी-A. C. D. । जत्थ गुरुं-0. जत्थ गुरु तारि हाइ सा हंसी । णाम-D. णामो । C. उक्कच्छा । ९१. B.D. रोला । होइ-A. होहिं, C. हो । चट-B. चो । अंतर गुरु-0. गुरु अंतर । हों ते, A. होंते, B. C. होते, D. हुंते, K. होति, N. हाँ ते, O. होत । णाअ-A. नाग । तण्हि -A. C. तेन्ह, B. तह, D. भण । उत्ते-B. D. वुत्ते । ऍग्गारहा-B. एग्गारहा, C. एग्गाराहा, D. एगाराहा । जुज्जइ-C. वुच्चइ, D. 0. जुज्जई । टुइ-C. टुट्टेइ, D.O. टुट्टे । वड्डइ-C. रुच्चइ, बढ़ई । ९१-C. ९४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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